परियोजना का नाम: राष्ट्रीय जनजातीय स्वतंत्रता संग्राम संग्रहालय मानगढ़धाम, बांसवाड़ा
(बजट घोषणा 2016-17 पेरा संख्या 59.0.0 एवं 2017-18 पेरा संख्या 140.03.0)
भौतिक प्रगति: भवन ब्लॉक ए व ई का लोकार्पण दिनांक 27-09-2018 को किया जा चूका है | शेष कार्य प्रगति पर है|
1. मेवाड़ में ब्रिटिश सत्ता के विरूद्व सर्वप्रथम प्रतिरोध जनवरी 1818 में सम्पन्न मेवाड़ ब्रिटिश संधि के विरोधस्वरूप जनजाति भीलों के रूप में प्रारम्भ हुआ ।
2. ब्रिटिश शासन के द्वारा बोलाई व रखवाली प्राप्ति के विरूद्ध भी भीलों ने आन्दोलन किया। आदिवासी भील सदा ही स्वतंत्रप्रिय जाति रही है और उन्होंने स्वतंत्रता का अपहरण करने वाली हर सत्ता के प्रयास का विरोध किया ।
3. जनजाति भीलों ने अपनी स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध विद्रोह प्रारम्भ किया। इसके दमन के लिए अंग्रेज सरकार की ओर से सेना भेजी गई। ब्रिटिश सत्ता के पाॅलीटीकल एजेन्ट कप्तान काॅब एवं ब्रिगेडियर लम्ले के नेतृत्व में भीलों के आन्दोलन को कुचलने लिए सेना भेजी गई।
4. 1826 में भीलों के स्वतंत्रता आन्दोलन में भौमट क्षेत्र के कुछ थानों को लूट लिया और 250 से अधिक ब्रिटिश शासन के अधीन काम करने वाले कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। भीलों के इस स्वतंत्रता आन्दोलन में अंग्रेजी सत्ता पर अत्यधिक दवाब बढ़ा और ब्रिटिश शासन की ओर से असिस्टेंट कप्तान ब्लैक को 20 कम्पनी 200 सवार और अन्य सैनिक तैयार कर आदिवासी क्षे़त्र खेरवाड़ा भेजा गया लेकिन कप्तान ब्लैक का रास्ते में ही निधन हो गया।
5. फरवरी 1828 में सिरोही पाॅलीटीकल एजेन्ट कप्तान स्पीयर्स को ब्रिटिश सत्ता ने आदिवासी आन्दोलन को कुचलने के लिए भेजा। परन्तु लम्बी वार्ता के बाद एक समझौता किया गया तत्पश्चात् कप्तान स्पीयर्स के जनजाति विरोधी गतिविधियों के विरोध में भील व गरासिया जाति के लोगों ने अपना आन्दोलन तेज किया। जनजाति के स्वतंत्रताप्रिय गरासियांे ने 21 पठानों को मौत के घाट उतार दिया।
6. 1833 में जुड़ा के भीलों ने अंग्रेजी सेना की बम्बई सशस्त्र सेना के 8 सैनिकों का मार गिराया। इससे क्रोधित होकर ब्रिटिश सरकार ने गुजरात व नीमच की संयुक्त सेना बनाकर आदिवासियों पर चढाई की। फिर लम्बी वार्ता के बाद ब्रिटिश शासन को मेवाड़ भील कोर के रूप में भीलों की सेना गठित करने का निर्णय आदिवासी आन्दोलन के मध्यनजर लेना पड़ा।
7. मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में भीलों ने स्वतंत्रता के लिए फिर संघर्ष प्रारम्भ किया। आदिवासी भील मूलतः अंग्रेज विरोधी रहे। वे उन्हें चमड़ी से गौरा किन्तु धोखेबाज मानते थे। आदिवासी भीलों ने अंग्रेज विरोधी अपनी भावना गीत में यों प्रकट किया:
भूरियुं गोरूं लोक
भूरियंु दगा नुं भरियुं
दगो करवे आयो।
8. भीलों के उग्र प्रतिरोध के क्रम में 1857 में स्थान-स्थान पर उग्र आन्दोलन होते रहे। 1857 में पोलीटीकल एजेन्ट शावर्स को ब्रिटिश शासन के एजेन्ट के रूप में मेवाड़ के महाराणा से वार्ता हेतु भेजा तो सम्पूर्ण रास्ते में आदिवासियों द्वारा जबरदस्त विरोध किया गया।
9. 3 जून, 1857 को मेवाड़ की सीमा से लगी नीमच छावनी के सैनिकों ने भी सत्ता के विरूद्ध विद्रोह प्रकट कर छावनी को लूटकर उसमें आग लगा दी एवं बैण्ड बाजे बजाते हुए मेवाड़ में प्रवेश किया।
10. मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में आदिवासियों ने जबरदस्त जन आन्दोलन खड़ा किया। 7 मार्च, 1922 को 10 हजार से अधिक आदिवासी एकत्र हुए, जिसमें अंग्रेजी सेना द्वारा बन्दूक और मीशनगनों से आदिवासियों पर अन्धा-धुन्ध गोली दागी गई और एक आंकलन के अनुसार सैकड़ों आदिवासी शहीद हो गए।
11. आदिवासियों ने 1943 में गोगुन्दा के क्षेत्र में रामेश्वर महादेव नामक तीर्थस्थान पर एक सभा की और उसमें सत्ता का विरोध किया। 31 मई, 1943 को आदिवासियों ने तीर कमान, तलवार, धारियां, कुल्हारियां, बन्दूक आदि से सुसज्जित होकर प्रदर्शन किया और ब्रिटिश सत्ता द्वारा जंगलात सम्बन्धी बनाए कानून का विरोध किया। आदिवासियों ने गोगुन्दा क्षेत्र में सड़क मार्ग को बाधित किया और ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों के आने-जाने वाले रास्तों को बन्द कर दिया। ब्रिटिश शासन द्वारा इन आदिवासियों पर घोड़े दौड़ाकर हमला किया गया। 450 से अधिक आदिवासियों को गिरफ्तार किया गया। सेन्ट्रल जेल में विशेष कोर्ट लगाकर मुकदमें चलाये गये और उनमें से अधिकतर आदिवासियों को जेल की सजा दी गई।
12. गोविन्द गुरू ने आदिवासियों में चेतना पैदा की एवं ’संप सभा’ का गठन कर नए संस्कार दिए। नशा मुक्ति से दूर होकर स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। आदिवासियों में स्वदेशी का भाव भी तेजी से फैला। गोविंद गुरू को गिरफ्तार किया गया तथा उनके डूंगरपुर राज्य में प्रवेश करने पर पाबन्दी लगा दी गई। आदिवासियों के मन में गोविन्द गुरू के प्रति अत्यधिक श्रद्धा थी। गोविन्द गुरू के नाम का नगाड़ा बजा कर वे सब मानगढ पहाड़ पर हाथों में तीर कमान लेकर इकट्ठा हो गए। 17 नवम्बर, 1913 को ब्रिटिश सेना ने मानगढ पहाड़ को घेर लिया। अंग्रेज अधिकारी कमाडेंट आई.पी. स्टोक्ले की अगुवाई में ब्रिटिश सेना ने आदिवासियों पर बिना चेतावनी के बन्दूकों और मशीनगनों से हमला बोल दिया, जिससे मानगढ धाम में आदिवासियों की लाशों के ढेर लग गये। आदिवासियों पर अत्याचार करने वाले पुलिस थानेदार को आदिवासियों ने मौत के घाट उतार दिया।
नवम्बर 1913 को मानगढ़ धाम में गोविन्द गुरु द्वारा किये गये अहिंसक आंदोलन में न्यायाधीष मेजर एच. गुध एवं डब्ल्यू एल्लिसन द्वारा दोषी सिद्ध किये गये लोगों की सूची:-
1. श्री गोविन्द गिर बेचारगर
2. श्री पूंजा धीर जी
3. श्री कालू राव जी
4. श्री कालजी लालजी
5. श्री धारजी कोयला
6. श्री सूरजी जेठा
7. श्री हालिया धानिया
8. श्री गजाहंग उर्फ राजहंग जीता
9. श्री कोदार बाहलजीदार
10. श्री खूमा नागजीदा
11. श्री रामला
12. श्री बाबरिया नाथिया
13. श्री बाबला भूदिया
14. श्री कालिया छोना
15. श्री मेबा हमजीदार
16. श्री परताबिया बाबरा
17. श्री भूरा जोहूदा
18. श्री गजहांग दोला
19. श्री चमना गलिया
20. श्री विजिया फूलजीदा
21. श्री कानजी नागजीदा
22. श्री हूरजी भूदिया
23. श्री कूरा वागजी
24. श्री रंगा मावजी
13. 5 मई, 1922 को लीलूड़ी-बड़ई की तलाई पर आदिवासी इकट्ठे होने लगे। अंग्रेजी फौजें इकट्ठी आई और बन्दूकों से आदिवासियों पर गोली बरसानी आरम्भ करते हुए दोपहर के बाद भूला और बिलोरिया गांव में अंग्रेज सेना ने आग लगा दी। इसमें अनेक आदिवासी बच्चे,औरतें व मवेशी जलकर राख हो गए। ब्रिटिश शासन ने आदिवासियों की लाशों को बैलगाड़ियों में लादकर आदिवासी गावों के रास्ते आंतक पैदा करने के लिए घुमाया। यह कार्यवाही ए.जी.जी (गर्वनर जनरल के एजेंट) के सेक्रेटरी मेजर प्रिचर्ड ने किया। इस आन्दोलन में मोतीलाल तेजावत का साथ कूकावास गावं के मोतीरा व लाडूरा भील ने दिया। भीलों के संघर्ष का गीत अभी भी गाया जाता हैः
’’ऐला टोपियो आयो रे
ऐला बन्दूक लायो रे
मरद लुगायां टाबरा घेरया रे
डरज्यो मती, मोतीरो आयो रे
लाडूरो आयो रे........’’
अर्थात ’’सिर पर टोप पहने हुए फिरंगी आ रहे हैं। वे बन्दूकों से लैस हैं। औरत-मरद बालकों को घेर लिया है। इस सबसे मोर्चा लेने के लिए मोतीरा व लाडूरा आ रहे हैं। इसलिये कोई डरना मत।’’