Bappa Rawal Panoramam, Mathatha, Udaipur

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परियोजना का नाम: बप्पा रावल पेनोरमा, मठाठा

(बजट घोषणा-2016-17, 59.0.0)

वित्तीय स्वीकृति: 151.46 लाख रूपये

भौतिक प्रगति:  पेनोरमा का लोकार्पण दिनांक 10-08-2018 को माननीया मुख्यमंत्री महोदया द्वारा किया जाकर आमजन के दर्शनार्थ चालू है।

मेवाड़ के संस्थापक बप्पा रावल

बप्पा रावल का जन्म वि.सं. 769 (712-13 ई.) में माना जाता है। बप्पा का वास्तविक नाम ‘महेन्द्र’ था। बापा या बप्पा उनका विरुद था तथा ‘रावल’ उनका पद था इस कारण इतिहास में वे बप्पा रावल के नाम से प्रसिद्ध हुए। बप्पा का बचपन नागदा में व्यतीत हुआ। चित्तौड़-उदयपुर का पाटनामा के अनुसार बादषाह ने जब गढ़ बेराट पर चढ़ाई की तो वहां का राजा रूपसी युद्ध करता हुआ मारा गया एवं उसकी रानी चहुवांण विचित्रकुंवर जो गर्भवती थी, गढ़ बेराट से निकलकर अपने पीहर होती हुई अवंतीपुरी उज्जैन पहुंची। यहां से चत्रकोट (चित्तौड़) होते हुए नागदाह (नागदा) आई। नागदा में एक ब्राह्मण के घर उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। इस पुत्र का नाम बप्पा रखा गया तथा बधाई में मिठाई वितरित की गई। बप्पा यहीं रहकर जंगल में गायें चराते थे और ये यहीं हारीत राषि (हारित राशि) के सम्पर्क में आये।

गुफा में बप्पा का जन्म

म्लेच्छों के आक्रमण में बल्लभीपुर का विनाष हुआ और उसका राजा सेना के साथ मारा गया। उसकी बहुत-सी रानियां थीं। रानी पुष्पावती के सिवा सभी रानियां राजा षिलादित्य के साथ सती हुईं। राजा के मारे जाने के कुछ समय पहले से ही रानी गर्भवती थी और म्लेच्छों के आक्रमण के पहले वह अपने पिता के यहां चली गई थी। 

जिस दिन राजा षिलादित्य का अन्त हुआ, रानी पुष्पावती अपने पिता के यहां किसी देवी के मन्दिर में पूजा करने गयी थी। जब वह पूजा करके लौटी तो रास्ते में उसने बल्लभीपुर के विनाष और राजा के मारे जाने का समाचार सुना, रानी को असह्य आघात पहुंचा। रानी गर्भवती होने के कारण उस समय सती होने का निर्णय न कर सकी और तपस्वी जीवन व्यतीत करने के लिये मलिया नाम की एक गुफा में चली गयी। उसी गुफा में उसके पुत्र उत्पन्न हुआ।  संदर्भ:- राजस्थान का इतिहास, लेखक:- कर्नल जेम्स टॉड।

बप्पा और हारीत राषि

बप्पा के अभ्युदय में हारीत राषि का योगदान उसी तरह है जैसे चन्द्रगुप्त के उत्कर्ष में चाणक्य का योगदान था। यह वह समय था जब भारत पर अरब साम्राज्य के आंतक के बादल मंडरा रहे थे। उस समय अरबों की लूटमार व रक्तपात से देष आतंकित था। चौहान, मौर्य और चावड़ा शासक इसे रोकने में असमर्थ थे। ऐसे समय में हारीत राषि ने बप्पा से सम्पर्क किया, षिक्षा-दीक्षा दी, पर्याप्त धन दिया एवं उसे शक्तिषाली व सामर्थ्यवान बनाकर चित्तौड़ पर अधिकार करने के लिए प्रेरित किया। बप्पा की नेतृत्व क्षमता बालपन में ही प्रकट होने लगी थी। बप्पा ग्यारह वर्ष की उम्र में पांच सौ बालकों को साथ लेकर एक राजा की तरह वन में क्रीड़ा करते थे।

बप्पा का राज्याभिषेक

मेवाड़ राज्य की स्थापना का श्रेय गुहिल को जाता है। इसके संस्थापक के नाम से इस राजवंष को गुहिलवंष कहा गया है। इस वंष के प्रारम्भिक शासकों में सर्वाधिक प्रतापी शासक बप्पा रावल थे। बप्पा रावल ने लकुलीष सम्प्रदाय के हारीत राषि के मार्गदर्षन में अपनी विजययात्रा प्रारम्भ की। भगवान एकलिंग को आधार मान कर उनके दीवान के रूप में बप्पा ने शासन सूत्र हाथ में लेकर नव साम्राज्य की नींव को दृढ़ता प्रदान की। बप्पा का राज्याभिषेक एवं चित्तौड़ पर अधिकार 22 वर्ष की उम्र में वि.सं. 791 माघ मास (सन् 733 ई) में हुआ था।

चित्तौड़ पर अधिकार

बप्पा को सर्वाधिक सहयोग भीलांे से प्राप्त हुआ। इसी शक्ति के आधार पर उन्होंने द्रोणागिरि के शासक दुर्दान्त को परास्त कर द्रोणागिरि पर अधिकार कर लिया। द्रोणागिरी की विजय के पश्चात् बप्पा ने गाजणगढ़ आक्रमण किया। वहां का दुर्गपति सलेमषाह युद्ध में मारा गया तथा उसकी सेना को करारी हार का सामना करना पड़ा। इस प्रकार बप्पा रावल ने अपने पूर्वजों के राज्यों, जो पूर्व में इनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो गए थे, को भी हस्तगत करने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद मोरी को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार किया और उसे अपनी राजधानी बनाई। बप्पा रावल के इस विजय अभियान के बाद से ही चित्तौड़ को अगली ग्यारह शताब्दी तक निरन्तर मेवाड़ की राजधानी बने रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस प्रकार बप्पा ने मेवाड़ के साम्राज्य निर्माण के साथ साथ एक नयी राजधानी भी प्रदान की।

चुनौतियों का सामना

चित्तौड़ पर अधिकार करने एवं राज्यभिषेक के बाद बप्पा ने जो सबसे पहले काम किया, वह सैन्य संगठन को व्यवस्थित करने का था। बप्पा ने तत्कालीन चुनौतियों का जिस प्रकार सफलतापूर्वक मुकाबला कर मेवाड़ में एक सुदृढ़ शासन की नींव डाली, वह बप्पा के दूरदर्षी एवं प्रतिभाषाली सैन्य नेतृत्व और उसकी कुषल व शक्तिषाली सेना का ही परिणाम था। बप्पा ने जब चित्तौड़ का राज्य प्राप्त किया, उस समय चित्तौड़ राज्य का क्षेत्र बहुत छोटा था। इस चित्तौड़ राज्य की सीमाएं, मौर्यों, परमारों, प्रतिहारों तथा चौहानों के राज्य से घिरी हुई थी। साथ ही अरब खलीफाओं के लगातार आक्रमणों के कारण ये सीमाएं सुरक्षित भी नहीं थी। इन विपरीत परिस्थियों में भी बप्पा ने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार कर विषाल साम्राज्य खड़ा किया।

बप्पा का संयुक्त मोर्चा

इस समय भीनमाल में एक नवीन प्रतिहार शक्ति का उदय हो चुका था। इसका नेता नागभट्ट था। बप्पा ने नागभट्ट के साथ एक संयुक्त मोर्चा बनाने का प्रस्ताव किया, जिसको नागभट्ट ने स्वीकार कर लिया। संाभर नरेष अजयपाल और हाड़ौती के शासक धवल भी इस मोर्चे सम्मलित हो गया। माड-जैसलमेर राज्य पर अरबों ने लगभग कब्जा ही कर लिया था, वहां का शासक देवराज भाटी भी इस मोर्चे में आ मिला। इस मोर्चे में तत्कालीन राजपूताने के अलावा भारत के अन्य राज्यों ने भी सहयोग दिया। इस संयुक्त मोर्चे में 12 लाख 15 हजार सैनिक होने का उल्लेख मिलता है।

बप्पा का विजय-अभियान

बप्पा रावल, नागभट्ट, अजयपाल, देवराज एवं धवल की इस संयुक्त सेना का अरब सूबेदार आमिन के साथ मारवाड़ में भयंकर युद्ध हुआ। अन्त में अरब सेना के पांव उखड़ गये तथा अरबों को सिंध नदी के उस पार खदेड़ दिया। इसमें अरबों की पूर्ण पराजय हुई। विजयी बप्पा रावल ने अपने राज्य की सीमाओं को ईरान, ईराक व खुरासान तक बढ़ाया। मेवाड़ की ख्यातों और बातों मंे वर्णन है कि बप्पा ने ईरान तक विजय प्राप्त की और वहां की राजकुमारी से विवाह किया।

लम्बे समय तक चित्तौड़ पर राज्य करने के बाद बप्पा खुरासन चला गया। उसने कंधार, काष्मीर, ईरान, ईराक और तूरान के बादषाहों को परास्त किया तथा उनकी पुत्रियों से विवाह किया। बप्पा गज़नी के सिंहासन पर स्वयं आरूढ़ हुआ एवं अपने चतुर्थ पुत्र मोहणसी को नेपाल की गद्दी पर बैठाया। 

बप्पा का मंदिर निर्माण कार्य

बप्पा रावल केवल योद्धा और विजेता ही नहीं था, अपितु वह दूरदर्षी एवं प्रजा हितैषी कार्यों का निर्माणकर्त्ता भी था। संस्कृत व राजस्थानी के ऐतिहासिक काव्यों में बप्पा द्वारा कराये गए निर्माण कार्यों का प्रभूत विवरण उपलब्ध होता है। अमृत कुण्ड के पास बप्पा ने अपने इष्टदेव भगवान एकलिंग का मंदिर बनवाकर उसकी प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन किया। इस कार्य में उसने 70 करोड़ रूपये खर्च किए। एकलिंगजी के मंदिर में मुख्य प्रासाद का निर्माण कराया एवं स्वर्ण निर्मित तुला स्थापित करवाई, जिसके दो तोरणस्तम्भ आज भी सुरक्षित है। यहां पर बप्पा व हारीत राषि की मूर्ति भी लगी हुई है। उन्होंने अनेक जैन और षिव मंदिरों का निर्माण भी कराया। बप्पा की माता एवं पत्नी ने नागदा में षिव के दो मंदिर बनवाये जो अब सास-बहू के मंदिर के नाम से विख्यात है।

धर्मप्रायण बप्पा रावल

बप्पा रावल धर्मप्राण शासक था। वह हाथ में स्वर्ण छड़ी धारण कर एकलिंगजी का प्रतिहारी बनता था। यही परम्परा आगे चलकर दीवान के रूप में विकसित हुई तथा मेवाड़ के महाराणा एकलिंगजी को मेवाड़ के शासक एवं अपने को उसके दीवान मानकर राज्य का संचालन करने लगे।

बप्पा रावल ने वृद्धावस्था में अपने पुत्र खुमाण को सारा राजपाट सौंपकर संन्यास ग्रहण कर लिया और जंगल में ही रहने लगे। यहीं इनका देहान्त हो गया। बप्पा रावल की समाधी एकलिंग जी के मंदिर से लगभग एक मील की दूरी पर विद्यमान है। यहां पर एक मन्दिर भी बना हुआ है।

हारित ऋषी के बारह वरदान

‘चित्तौड़ उदयपुर पाटनामा’ के अनुसार बापा ने हारीत राषि की सेवा कर उन्हें प्रसन्न कर उनसे बारह वरदान प्राप्त किये:- 

1. तेरे पांव तले चार युग तक का राज्य रहेगा।

2. जहां-जहां तेरे पांव फिरेंगे वहीं तेरा राज्य रहेगा।

3. बापा तेरी सतयुगी 21 हाथ की लम्बाई होगी।

4. तेरे शस्त्र का घाव नहीं होगा। 

5. तुझ में तीस मन की तलवार उठाने की क्षमता होगी।

6. तेरा सम्बोधन ‘‘रावल’’ शब्द नाम के साथ होगा।

7. तेरे भोजन में सवा मन अनाज का आहार होगा।

8. सदा तेरी युद्ध में विजय होगी।

9. तेरी निगाह से दूसरे की निगाह मिलने पर उसकी आधी शक्ति तेरे में आ जायेगी।

10. तुझे चित्तौड़ का राज्य प्राप्त होगा।

11. गजनी तक राज्य होगा।

12. तू चक्रवर्ती परम्परानुसार राज्य करेगा।

संदर्भ:- बापा रावल, लेखक:- डॉ. मोहब्बत सिंह राठौड़।

गायें चराते हुए बप्पा का हारित राषि से मिलन

बापा आठ वर्ष का होने पर जंगल में गाय चराने लगा। उन गायों में से एक गाय वृक्षों के मध्य षिव मूर्ति पर दूध झराती थी। पास में पहाड़ की गुफा में हारीत राषि तपस्या करता था। बापा गाय ढूंढते-ढूंढते हारीत के पास पहुंचता है। बापा ने श्रद्धा पूर्व प्रणाम किया तब हारीत ने प्रेम से पास में बैठा लिया। बापा ने अपने परिचय में क्षत्रिय होना बताया मां के साथ रहना बताया और श्रद्धा से कहा, ‘‘आपके दर्षन से मेरे सभी कष्ट दूर हो गये।’’ इस पर हारीत ने बापा को एकलिंगजी की विधिपूर्वक प्रतिदिन पूजा और यज्ञ करने सदा योग-अभ्यास करने को कहा।

संदर्भ:- बापा रावल, लेखक:- डॉ. मोहब्बत सिंह राठौड़।

हारीत राषि का चमत्कार

अमृत कुण्ड के पास बापा को हारीत ने विमान से उतारा और हारीत ने अपने मुख से बापा को पान दिया और कहा इसे ग्रहण कर लो, किन्तु विमान की गति से पान मुंह में नहीं आकर पैरों पर गिर गया। यह देखकर हारीत ने कहा यदि यह पान मुंह में ले लिया होता तो तुम पृथ्वी पर सार्वभौम सम्राट बनते, लेकिन यह पैरों पर गिरा है, इस कारण तुम्हारे वंषजों का राज्य कभी भंग नहीं होगा। बापा को 56 करोड़ स्वर्ण मुद्राएं देकर हारीत विमान से उड़ गया। 

चित्तौड़ पर अधिकार

हारीत राषि से वरदान प्राप्ति पर बापा चित्तौड़ की ओर गया। वहां चित्र मोरी की सभा में गया। चित्र मोरी ने एक लाख रूपये दैनिक देकर अपना सामन्त बनाया। एक बार द्रोणगिरी के बलषाली दैत्य ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। चित्तौड़ के सामन्त बापा से द्वेष भाव रखते थे। अतः उस दैत्य से लड़ने से मना कर दिया। इस पर चित्र मोरी ने बापा को युद्ध हेतु भेजा। तब सामन्त भी लज्जित हो बापा के साथ हो गये। भयंकर युद्ध में दुर्दान्त दैत्य टिक नहीं सका वह पराजित हुआ। यवनों ने भयभीत हो बापा की अधीनता स्वीकार की। तब बापा ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर अपना अधिकार किया और चित्र मोरी की 27 पुत्रियों के साथ विवाह किया। यों 16 वर्ष की आयु में चित्तौड़ के राज्य सिंहासन पर संवत् 491 वैषाख शुक्ला पंचमी गुरूवार पुष्य नक्षत्र में बैठा।

राज्य की सीमाओं का विस्तार

बापा ने मालवा, गुजरात, आबू, सौराष्ट्र, नागौर, मारवाड़ (मरुस्थल) और सिन्धु तटीय क्षेत्रों को बलपूर्वक जीत उन्हें अपने राज्य में मिलाया। बापा ने पूर्व में गंगासागर संगम, दक्षिण में सेतुबन्ध रामेष्वर, द्वारिका, उत्तर-पष्चिम में सिन्धु, उत्तर में हिन्दूकुष एवं गजनी तथा श्रीनगर (कष्मीर) के नरेषों को जीत राज्य की सीमाओं का विस्तार किया।

बापा ने कच्छ पर आक्रमण पर अपने पूर्वजों की राजधानी वल्हिका (वल्लभी) को जीता। साथ ही मगध, अंग, पांचाल, सिन्धु, सौवीर, सपादलक्ष, बंग, कलिंग, विराट, काषी, साकेत, कुरुक्षेत्र, वस्तदेष, नौहर, मध्यप्रदेष, गुर्जर, कुषावर्त, नागक्षेत्र, वत्सदेष, विदेह, नवद्वीप, मलय से लगाकर शोरसेन (मथुरा मण्डल) आदि प्रदेषों को जीत अपने अधीन किया।

बापा ने गजनी पर आक्रमण कर वहां के बादषाह अलाईरम को परास्त किया। अपने चतुर्थ पुत्र मोहणसी को नेपाल की गद्दी पर बैठाया। बापा ने अनेक मुस्लिम औरतों से विवाह किया। इनसे जो पुत्र हुए उनमें बड़े पुत्र जमरदीन को काबुल, दूसरे पुत्र यहमदनूर को तुर्कीस्तान तथा तीसरे पुत्र तीमरबेग को ईरान का राज्य दिया। कुछ पुत्रों को नेपाल की ओर भेजा।

बप्पा के निर्माण कार्य

अमृत कुण्ड के पास बापा ने अपने इष्टदेव का मन्दिर बनवाया, जहां पर बापा व हारीत राषि की मूर्ति आज भी विद्यमान है उन्होंने एकलिंगजी के मध्य में स्थित मुख्य प्रासाद का भी निर्माण करवाया तथा मंदिर में स्वर्ण निर्मित तुला स्थापित करवाई, जिसके दो तोरण स्तंभ आज भी स्थित हैं। घासा (त. मावली, जिला-उदयपुर) ग्राम के समीप स्थित मुच्छा नामक गांव व ‘बापासर’ नामक तालाब बनवाया। बापा ने जैन और षिव मन्दिरों का भी निर्माण करवाया। बापा की माता एवं पत्नी ने भी नागदा नगर में षिव के दो मंदिर बनवाये। 

मन्दिर, तालाब आदि की प्रतिष्ठा के अवसर पर बापा ने ब्राह्मणों, चारणों, भाटों को खूब दान दिया। बापा की माता कमलावती व अन्य 27 रानियों ने तुलादान में सोना, चांदी आदि का दान किया। बापा ने कुएं, तालाब व बावडि़यों का निर्माण करवाया। उसने नागदा नगर बसाकर नागिल ब्राह्मण को दिया। बापा ने एकलिंग के मंदिर की स्थापना उसी स्थान पर की जहां बापा सबसे पहले हारीत राषि से मिला और हारीत राषि का आषीर्वाद प्राप्त हुआ। इस स्थान एवं मंदिर में तब से आज तक मेवाड़ राजवंष की आस्था बनी हुई है। चित्तौड़ के पास वीरवरणी महादेव व आंवल्या पहाड़ पर गुफा के पास गुहाराक्षस को मार उससे 32 मण की तलवार ली और उसी स्थान पर चतुर्भुज का मन्दिर, विष्णु कुण्ड व एक षिव कुण्ड का निर्माण कराया। श्री एकलिंगजी के मन्दिर हेतु उसने 12 ग्राम भेंट किये।

हारीत राषि का आषीर्वाद

जब महेन्द्र (बापा) अपने पुरोहित के यहां रहते-रहते कुछ होषियार हुआ, तो उसकी गायें चराने के लिये जंगल में जाने लगा, और इसी जमानह में उसको भोडेला तालाब के पीछे हारीत नामी एक तपस्वी मिला। बापा हमेषा उसके पास जाता और उसकी टहल बन्दगी किया करता था; उसके जरीए से उसको एकलिंग महादेव के दर्षन हुए, जो बांस के वृक्षों में एक षिवलिंग था। एकलिंग माहात्म्य में इस कथा को करामाती बातों के साथ बढ़ाकर लिखा है, लेकिन मषहूर है, कि उसी महात्मा के आषीर्वाद से बापा को बरकत हासिल हुई, और बहुत सी दौलत जमीन से मिली, और उसने विक्रमी ७९१ (हि0 ११६ = ई. ७३४) में राजा मान मोरी से चिŸाौड़ का किला लिया। सन्दर्भ: वीरविनोद मेवाड़ का इतिहास, महेन्द्र (बापा) का वृŸाांत।

बप्पा की समाधि

बापा का समाधिस्थान एकलिंगपुरी से उŸार को एक मील से कुछ अधिक फासिले पर अब तक मौजूद है, जहां एक छोटा सा मन्दिर है, जो जीर्णोद्धार होकर पीछे से दुरुस्त किया गया है, और उस पर बारह सौ से कुछ ऊपर संवत् लिखा है, जो उसके जीर्णोद्धार का संवत् है। यह रमणीय स्थान ‘बापा रावल’ के नाम से प्रसिद्ध है। इससे यह साबित हो गया, कि बापा ने एकलिंगपुरी में परलोक वास किया, खुरासान की तरफ नहीं। सन्दर्भ: वीरविनोद मेवाड़ का इतिहास, महेन्द्र (बापा) का वृŸाांत।

‘रावल’ पद धारण किया

अम्बिका भवानी ने स्वप्न में बापा की माता को कहा, कि तुम्हारे एक बड़ा प्रतापी और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न होगा, उसको चाहिये कि राजा का खिताब छोड़कर रावल कहलावे; और उसी कौल के मुवाफिक बापा ने अपनी माता के कहने से यह पद धारण किया। चाहे कुछ ही हो, परन्तु इसमें सन्देह नहीं, कि रावल पद का अर्थ बहादुर राजपूतों को शोभा देने वाला है, याने राव शब्द उसके लिये आता है, जो लड़ाई के समय गर्जना को स्वीकार करे। सन्दर्भ: वीरविनोद मेवाड़ का इतिहास, महेन्द्र (बापा) का वृŸाांत।

बप्पा का पालन-पोषण

मलिया शैलमाला के पास वीर नगर नाम की एक बस्ती थी। उसमें कमलावती नामक एक ब्राह्मणी रहती थी। रानी ने उस ब्राह्मणी को बुलाकर अपना पुत्र सौंपा और कहा- कमला, यह पुत्र तुम्हारा है और तुम इसकी माता हो। अपना पुत्र समझकर तुम इसका पालन-पोषण करना। बालक गुफा में पैदा हुआ था और गुफा को वहां के लोग गुहा कहते थे। इसलिये कमला ने उस पुत्र का नाम गोह रखा। संदर्भ:- राजस्थान का इतिहास, लेखक:- कर्नल जेम्स टॉड।

भील राज्य ईडर का नेतृत्व

मेवाड़ के दक्षिण में शैलमाला के भीतर ईडर नाम का एक भीलों का राज्य है। मण्डलीक नामक एक भील उस समय वहां का राजा था। गोह उस राज्य के भीलों के साथ वहां के जंगलों में घूमा करता और वहां के जानवरों का पीछा किया करता। एक दिन भीलों के लड़के गोह के साथ खेल रहे थे। सभी लड़कों ने मिल कर गोह को अपना राजा बनाया और एक भील बालक ने अपनी उंगली काटकर अपने खून से गोह के माथे पर राजतिलक किया। ईडर राज्य के मण्डलीक राजा ने यह घटना सुनी कि यहां के भील लड़कों ने गोह को अपना राजा बनाया है तो वह बहुत प्रसन्न हुआ और एक दिन उसने अपना राज्य गोह को सौंप कर राज्य से छुट्टी ले ली। संदर्भ:- राजस्थान का इतिहास, लेखक:- कर्नल जेम्स टॉड।

चित्तौड़ प्रस्थान

बप्पा ने अपने मां से सुना था कि मैं चित्तौड़ के मोरी राजा का भान्जा हूं। इस आधार पर उसने चित्तौड़ जाने का विचार किया। इस समय उसके बहुत से साथी हो गये थे। उनको लेकर वह चित्तौड़ पहुंचा। उन दिनों वहां पर मौर्य वंष का मानसिंह नामक राजा राज्य करता था। उसने बप्पा को भान्जे के रूप में पाकर बहुत आदर किया। उसने उसको अपने राज्य का एक सामन्त बनाया और उसके लिए एक अच्छी जागीर का प्रबन्ध कर दिया। मौर्यवंषी पहले मालव के राजा थे और इन दिनों में यह वंष चित्तौड़ के सिंहासन पर आसीन था। संदर्भ:- राजस्थान का इतिहास, लेखक:- कर्नल जेम्स टॉड।

चित्तौड़ राज्य पर अधिकार

इन्हीं दिनों की बात है। किसी विदेषी ने अपनी सेना के साथ चित्तौड़ पर आक्रमण किया। राजा मानसिंह ने उस शत्रु से लड़ने के लिये अपने सामन्तों को आदेष भेजा। सामन्त इसके लिये तैयार नहीं हुए। आने वाले शत्रु से सामन्तों के युद्ध नहीं करने पर बप्पा स्वयं युद्ध के लिये तैयार हुआ और चित्तौड़ की सेना लेकर वह शत्रु से लड़ने के लिये चला गया। इस युद्ध में बप्पा ने अपने जिस पराक्रम का प्रदर्षन किया, उसको देखकर राजा मानसिंह के सामन्त आष्चर्य में पड़ गये। शत्रु को पराजित करके बप्पा लौटकर चित्तौड़ नहीं गया बल्कि चित्तौड़ की सेना और सामन्तों के साथ वह अपने पूर्वजों की राजधानी गजनी नगर में पहुंचा। उस समय गजनी में सलीम नाम का राजा राज्य करता था। बप्पा ने उस पर आक्रमण किया और गजनी का राज्य अपने अधिकार में लेकर म्लेच्छ राजा सलीम की लड़की के साथ विवाह किया। इसके बाद गजनी के राज्य को अपने एक सरदार को सौंपकर वह अपनी सेना के साथ चित्तौड़ आया और परिस्थितियों का लाभ उठाकर राजा मानसिंह को सिंहासन से उतार दिया और चित्तौड़ राज्य का वह शासक बन गया। संदर्भ:- राजस्थान का इतिहास, लेखक:- कर्नल जेम्स टॉड।

बप्पा के विवाह एवं संततियां

बप्पा ने बहुत से विवाह किये थे। उनसे जो लड़के पैदा हुए थे, उनमें से कुछ सौराष्ट्र चले गये थे और उसके पांच बेटे मारवाड़ चले गये थे। अपनी पचास वर्ष की आयु में बप्पा खुरासान राज्य में चले गये और वहां के राज्यों को जीत कर उन्होंने बहुत सी म्लेच्छ स्त्रियों के साथ विवाह किया, उन स्त्रियों से भी बप्पा के अनेक पुत्र एवं कन्यायें पैदा हुई। बप्पा ने इस्फनहान, कन्धार, काष्मीर, ईराक, ईरान, तूरान और काफरिस्तान आदि अनेक पष्चिम के देषों को जीत कर उन राजाओं की बेटियों से विवाह किया था और अन्त में साधु जीवन व्यतीत किया। बप्पा का जन्म सम्वत् 770 में हुआ। संदर्भ:- राजस्थान का इतिहास, लेखक:- कर्नल जेम्स टॉड।