Budha Pushkar Lake Conservation and Ghat Construction Work

file

परियोजना का नाम: बूढ़ा पुष्कर फीड़र निर्माण कार्य

(मा. मुख्यमंत्री महोदया का बजट-सत्र 2015-16 में उद्बोधन)

वित्तीय स्वीकृति:  906.00 लाख रूपये

भोतिक प्रगति: फीडर  का लोकार्पण दिनांक 14-06-2016 को माननीया मुख्यमंत्री महोदया द्वारा किया जाकर आमजन के दर्शनार्थ चालू है।

तीर्थ गुरु पुष्कर राज की पौराणिक महिमा (बूढ़ा पुष्कर)

पुष्कर के विषय में अधिक लिखने के पहले यह बता देना आवष्यक है कि पुष्कर एक नहीं तीन हैं ज्येष्ठ पुष्कर अथवा ब्रह्म पुष्कर, मध्य पुष्कर अथवा विष्णु पुष्कर व कनिष्ठ पुष्कर अथवा रुद्र पुष्कर जिसे बुड्ढा पुष्कर (बूढ़ा पुष्कर) भी कहते हैं। बूढ़ा पुष्कर जयपुर बाईपास पर पुष्कर कस्बे से लगभग 4 किलोमीटर दूर कानस ग्राम में स्थित हैं। रुद्र पुष्कर महापुष्कर कहलाया और फिर धीरे-धीरे बड़ा और बुड्ढा पुष्कर (बूढ़ा पुष्कर) कहलाने लगा। यह स्थान अति शांत, एकान्त, समीप में पहाड़ी क्षेत्र, साथ ही बालू रेत के टीलों के कारण मनहरण प्राकृतिक सौन्दर्ययुक्त हैं। ब्रह्म पुष्कर में मुर्दों की भस्म के ढेर के ढेर निरंतर पटके जाने से ऊपरी मिट्टी का आस्तरण खूब बिछ गया है। यहां पर 100 वर्ष से बनी हुई कोई इमारत नहीं हैं। सबसे प्राचीन एक टीले पर बैरागी खाकी साधू इंद्रदास द्वारा निर्मित श्रीवेंकटेषजी का मन्दिर है जो विक्रम सम्वत् 1817 के आसपास बना था और अब टूट-फूट गया है। अब वह बालाजी का मन्दिर कहलाता हैं। यहां पर बाबू रामजीवन जी भार्गव दीवान शाहपुरा राजमाता का वि.सं. 1855 में बनाया हुआ रघुनाथ जी का मन्दिर हैं। विक्रम सम्वत् 1856 में दीवान साहब की धर्म पत्नी द्वारा यहां पर रामघाट भी बनवाया गया था। यहां पर एक कूप ब्रह्मचारी रामचंद्र ने बनवाया था। यहां पर कोई पंडे नहीं हैं। समीप में ही करीब 60 घरों का रावतमेरों की बस्ती का ग्राम है जो ‘‘कानस’’ कहलाता है। यहां पर एक छोटा-सा मन्दिर दुग्धाहारी बंगाली बाबा का भी बनवाया हुआ है। यहां पर पृथ्वीराज के पिता सोमेष्वरदेव का (1169-1178) बनवाया हुआ वैद्यनाथ का मन्दिर है। जिसका वर्णन ‘पृथ्वीराज-विजय’ के अष्टम सर्ग में मिलता है। यथा-

यूथनाथमिवैतेषां मध्ये भव गदागदम्।

प्रासादं वैद्यनाथस्य प्रजाक्षेमंकरो व्यधात्।।

दत्ते हरिहयेनेव शुद्धरीतिमये हरौ।

प्रतिष्ठां लंभितस्तत्र शुद्धरीतिमयः पिता।।

एकस्थाने प्रतिष्ठाप्य ब्रह्मविष्णु महेष्वरान्।

त्रिपूरुषमिव श्राद्धं धन्यो निर्मितवान्पितुः।।

पù पुराण के सृष्टि खण्ड अनुसार एक समय देवेष्वर ब्रह्माजी परमेष्वर का ध्यान कर रहे थे। ध्यान करते-करते उनके मन में विचार उठा कि ‘‘मैं किस प्रकार यज्ञ करूं ? भूतल पर कहां और किस प्रकार मुझै यज्ञ करना चाहिए ? इस प्रकार विचार करते प्रजापति ब्रह्मा के मन में यह विचार आया कि अब मैं पृथ्वी पर चलूं। यह सोचकर वे अपनी उत्पत्ति के प्राचीन स्थान पर आये जिसे वेदपाठी ऋषि भगवान श्री विष्णु की नाभि से प्रकट हुए कमल को ही पुष्कर-तीर्थ बतलाते हैं। लोककर्ता ब्रह्माजी ने इस पावन भूमि पर यज्ञ निमित्त वेदी बनाई तथा वहां तीन पुष्करों की कल्पना की। प्रथम ज्येष्ठ पुष्कर जिसके देवता साक्षात् ब्रह्माजी, दूसरा मध्यम पुष्कर जिसके देवता श्री विष्णु, तीसरा कनिष्ठ पुष्कर (बूढ़ा पुष्कर) जिसके देवता भगवान रूद्र है। यह त्रिपुष्कर-तीर्थ सब तीर्थों में प्राचीन व श्रेष्ठ माना गया है। ब्रह्मलोक में जाने की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को तीनों पुष्करों में अनुलोभ क्रम अर्थात् क्रमषः ज्येष्ठ, मध्यम एवं कनिष्ठ पुष्कर में तथा विलोम क्रम से अर्थात् कनिष्ठ, मध्यम और ज्येष्ठ पुष्कर सरोवर में स्नान करके उनकी प्रदक्षिणा करनी चाहिए। इसी प्रकार त्रिपुष्कर में पितृकार्य किया जाता है उसका अक्षय फल होता है, पितर और पितामह सन्तुष्ट होकर उन्हें उत्तम जीविका की प्राप्ति के लिए आषीर्वाद देते हैं। यहां तर्पण करने से पितरों की तृप्ति होती है और पिण्डदान करने से उन्हें स्वर्ग मिलता है। भगवान श्री रामचन्द्रजी ने इस तीर्थ में आकर मार्कण्डेय ऋषि के कथनानुसार अपने पिता दषरथजी के लिए पिण्डदान और श्राद्ध किया था। इसी प्रकार जो मनुष्य कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुष्कर सरोवर मंे स्नान कर ज्येष्ठ पुष्कर में गौ-दान, मध्यम पुष्कर में भूमिदान व कनिष्ठ पुष्कर (बूढ़ा पुष्कर) में स्वर्णदान करता है तथा जो वहां टूटे-फूटे तीर्थों का जीर्णोद्धार करते हैं, वे ब्रह्मलोक में जाकर सुखी व आनन्दित होते है ऐसा पुराण-षास्त्रों में कहा गया है।

कहा जाता है कि मंडोर के राजा नाहरराव पडि़हार 13 वीं सदी के जंगली सूअर का लक्ष्य बांध अपने साथियों से बिछड़कर इस क्षेत्र से प्रविष्ट हो गये। सूअर अदृष्य हो गया, किंतु राजा को प्यास लगी। कुछ देर भटकने के पश्चात् राजा को गाय के खुर के समान गड्डा नजर आया तो कि स्वच्छ जल से परिपूर्ण था। राजा ने अपने दोनों हाथों की अंजुली बना कर ज्योंही गड्डे से जल निकाला उन्हें यह देखकर आष्चर्य चकित रह जाना पड़ा कि उनके दोनों हाथों से कुष्ठ जैसे भयानक रोग के लक्षण समाप्त हो गये। तत्पष्चात् जल को को उन्होंने अपने सारे शरीर पर मला जिससे सम्पूर्ण शरीर के कुष्ठ के लक्षण समाप्त हो गये व शरीर कांतिमय हो गया। फलतः प्रभावित होकर उन्होंने उस गड्डे को सरोवर का रूप देने का संकल्प किया और लौट गये। कुछ समय पष्चात् राजा ने अपने संकल्प को पूरा किया। 

श्री पुष्कर की महिमा तो यह है कि जैसे भगवान मधुसूदन (विष्णु) सब देवताओं के आदि है वैसे ही श्री पुष्कर सब तीर्थों का आदि है इसी कारण यह तीर्थ गुरु की महान् पदवी से सुषोभित है।

पुष्कर अनादि सिद्ध क्षेत्र है। यह नित्य तीर्थ है। भारत के पंच सरोवरों में प्रमुख सरोवर है भारत के पंच तीर्थों में प्रमुख तीर्थ है। नव आरण्यों में प्रसिद्ध पुष्करारण्य है। पृथ्वी के दो नेत्रों में से एक नेत्र है यहां सृष्टि कर्ता ब्रहमा जी स्वयं गायत्री के साथ निवास करते है जिनके पूजा दर्षन से सुख सौभाग्य मिलता है। श्री पुष्कर में भगवान विष्णु का स्वयं प्रगट श्री विग्रह स्थित है। भगवान के विभिन्न अवतारों को निवास स्थान है, भगवान कृष्ण व हिंस डिम्भक की संग्राम भूमि है, नंदनी प्रभंजन की मोक्षभूमि, नागकुल व वेदमाता गायत्री की जन्म भूमि षिव व भगवती के दिव्य क्षेत्र व शक्ती पीठ, ऋषि-महर्षियों की तपोभूमि जहां बैठकर भगवान व्यास ने वेदों का विभाग व पुराणों की रचना की है। यहीं सरस्वती प्राणियों के पाप दूर करने के लिये ब्रहम लोक से आकर ठहरी है। यही से सरस्वती सुप्रभा, कनका, चन्द्रा, नन्दा व प्राची पंच स्रोता बनकर निकली है। ज्येष्ठ, मध्य, कनिष्ठ तीन यहां के पवित्र एवं निर्मल सरोवर है जिनके दर्षन मात्र से ही मनुष्य सब पापों से छूट जाता है। नाग पर्वत की तलहटी पर नाग तीर्थ (पंचकुण्ड) में स्नान करने से मनुष्य की सांप काटने से मृत्यु नही होती है। यही पर पाण्डवों के वनवास काल का तीर्थ पंचकुण्ड है। पितरों का प्रिय गया-कूप नाम से यहां प्रसिद्ध तीर्थ है जहां भगवान राम ने अपने पिता का श्राद्ध किया था। ‘‘पुष्करे क्षयं श्राद्ध तत्पष्चैव महाफलम्’’ श्री पुष्कर में किये गये श्राद्ध का अक्षय फल प्राप्त होता है। यहां कपिला नाम का वापी है जहां कार्तिक शुक्ला चतुर्दषी को स्नान पर मनुष्य सुन्दर देह पाता है। वामदेव आश्रम के पास सुप्रभा नाम का कूप है जहां स्नान करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते है। यज्ञ पर्वत की तीर पर अगस्त्यमुनि का आश्रम है जहां स्नान व पूवे दान का विषेष महत्व है। नाग पर्वत पर ही ऋषि यमदग्नि का आश्रम व राजा भर्तृहरी की मनोरम गुफा भी स्थित है। पाप नाषक प्राची सरस्वती के तीर पर भगवान व्यास, दधीचि, कण्व, च्यवन आदि महर्षियों के आश्रम है। मंकणक ऋषि के आश्रम पर भगवान षिव सदा निवास करते है। मनुष्यों के सर्व मनोरथ पूर्ण करने वाला मृकंड ऋषि का आश्रम है यहां प्रेत तीर्थ है जहां स्नान करने वाला प्रेत योनि नहीं पाता है। यहां पुत्रदा नाम की वापि है जहां स्त्री को पुत्र की प्राप्ति होती है। सर्व तीर्थ युक्त यज्ञ पर्वत (नाग-पर्वत) है जहां महर्षि विष्वामित्र का श्री पुष्कर में तप करने, मेनका द्वारा तप भंग करने व महर्षि के साथ 10 वर्ष तक रहने का वर्णन है। महर्षि वृहस्पति ने श्री पुष्कर में तपस्या की एवं वर प्राप्त कर देव गुरु बने। मां भगवती के 51 शक्ति पीठों में से एक ‘‘पुष्कर पुरुहुतेति’’ पुष्कर सरोवर के पष्चिम की ओर पुरुहुता पर्वत पर शक्ति पीठ स्थित है। पुष्कर तीर्थ सरोवर में कार्तिक शुक्ल मास की एकादषी से पूर्णिमा विषेष करके पदम्क योग (विषाखा का सूर्य व कृतिका का चंद्र) आने पर स्नान, दान, श्राद्ध करने को कोटि गुणा पुण्य फल प्राप्त होता है। यह तीर्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रदान करने वाला है इसी कारण सत्ययुग के इस आदि तीर्थ की महानता को सभी देव-देवी, ऋषि, महर्षियों ने तीर्थ गुरु के रूप में स्वीकार किया है। इस प्रकार का वर्णन वेदों से लेकर पुराणों आदि में वर्णित है।

जन्म प्रभाति मद पापस्त्रियों या पुरुषस्य वा। पुष्करे स्नान मात्रस्य सर्व-मेव प्रणष्यति।।

 

।। अथ श्री पुष्कर राज गाथा।।

बंदउ पुष्कर तीर्थ गुरु, जल अधिदेव गणेष।

हरहुं अमंगल अघ अखिल, मेटहुं सकल कलेष।।

नाहिं सरोवर सिन्धु सम, नहीं विष्णु समदेव।

तथा प्रसिद्ध तीर्थगुरु नहिं पुष्कर सम सेव्य।।

 

ऊं ब्रह्म पुष्कर राज विजयते। तीर्थ गुरु! जय! नमो! नमस्ते!

चंद्र प्रभा सम जल अतिसोहे। देखि स्वच्छता मुनि मन मोहे।।

भ्रमत मकर बने बहु फेनू। देखि लजात प्यस सुर धेनू।।

वेदगान रत विप्र प्रधाना। सेवहिं पुष्कर नियम विधाना।।

ऊं अलंकृत त्रिभुवन ताता। ताकर दृष्टि पूत विख्याता।।

श्री पुष्कर जल परम सुहावन। हरहुं त्रिताप करहुं मम पावन।।

परम रम्य पुष्कर सब लायक। अषुभ हरहिं जल मंगल दायक।।

तीरथ धाम इन्द्र सब देवा। आइ करहिं पुष्कर पद सेवा।।

शुक वषिष्ठ मुनि व्यास पराषर। रवि बल्लभ रामानुज शंकर।।

साधक सिद्ध सेव सब काऊ। देत सद्य फल पुष्कर राऊ।।

कहहिं अनादि सिद्ध थल एहू। प्रकट न कारण लौकिक जेहू।।

कारण एक कहहिं अनुमाना। सृजन सृष्टि चाहत भगवाना।।

तबहिं कमल महूं ब्रह्मा जनमें। जल अपार लख सोचत मन में।।

तप-तप सुना किया तप भारी। भये विधना रच सृष्टि सारी।।

एक बार ब्रह्मा मन माहीं। भई ग्लानि मम तीरथ नाहीं।।

स्वस्ति! क्ह ते कमल चलाया। पुष्कर थिर सब थल हो आया।।

तब ब्रह्मा पुष्कर पगु धारा। निसरत निर्मल नीर निहारा।।

कार्तिक शुक्ल दिव पंच विधाता। रचा यज्ञ त्रिभुवन विख्याता।।

होम करण जब ब्रह्मा लागे। नाना अचरज प्रगटन लागे।।

कपाल लीला कीन्हि पुरारी। अज थापे अटमट वपुधारी।।

जानि सफल तप मंकण नाचे। शान्त कीन्ह मकडेष्वर राचे।।

नाग पहाड़ अहि गरूड़ प्रसंगा। रिषि शाप ते बटु बना भुजंगा।।

भइ बडि बार न आइ सावित्री। मख हित ब्रह्मा बरी गायत्री।।

लग्न गायत्रिहुं सावित्री रूष्टा। तप हित जा ब्राजी गिरि पृष्ठा।

रत्न गिरि मां सावित्री राजे। नमत अचल सौभाग्य विराजे।।

गायत्री जप अमित प्रभावा। ब्रह्मा देते फल मन भावा।।

यज्ञान्त स्नान गायत्री ब्रह्मा। सबहिं संग कर भये सुधर्मा।।

तब ब्रह्मा यक्ष तर्पण कीन्हा। करि थल स्वच्छ सिखावन दीन्हा।।

विपुल दान महि देवन पाये। हर्षित सब निज धाम सिधाये।।

नाभि कमल तेहि पुष्कर सिद्धा। ब्रह्मा मख ते भयहुं प्रसिद्धा।।

सुखद अरण्य पुष्कर मुनि भावन। पग पग तीरथ परम सुहावन।।

मार्कण्डेय इहां तप कीन्हा। प्रलय देखि अमर पद लीन्हा।।

पुष्कर तप कौषिक नव सृष्टा। भये ब्रह्म रिषि गायत्री दृष्टा।।

इहां कीन्ह अगस्ति तप चौखा। असुर संघारन सिन्धु सोखा।।

लंका जय गुर दीन्ह गुंसाई। राम झरोख तपे रघुराई।।

गोपीचन्द भर्तृहरि राजे। बामदेव तपे गुहा बिराजे।।

जमनी कुण्ड यम यमी नहाये। कुण्ड स्नान यम त्रास मिटावे।।

कान बाय ककडेष्वर भेंटें। लोमर्षकपिल भव भय मेटें।।

ध्रुव बावड़ी पुष्करणी लुप्ता। रहत गुप्त नारद रिषि सप्ता।।

सुधाबाय पितु प्रेत सुपासी। (तं) कीन्ह श्राद्ध राम बनवासी।।

पाण्डव तप पंच कुण्ड बनाये। पाप मोचनी पुर दर्षाये।

रिषि गुहा आश्रम सुरधामा। सब कहूं सादर करहुं प्रणामा।।

कहुं गिरि कहुं सर सरिता राजे। सब मिल पुष्कर राज विराजे।।

रिषि निवास यज्ञस्थल राजत। गंगा ताकर चरण पखारत।।

अमिय औषध बृच्छ घनेरे। सुषमा निरखत चित्र उकेरे।।

लक्ष्मी पोल रहस्य को जाने। जांकी ईंट देव कर माने।।

बाष्कलि बध हित अज तनुधारी। स्वर्ण चूल राजत त्रिपुरारी।।

राजे अजयपाल तप योगी। सदा सहायी रखें निरोगी।।

गुप्त सरस्वति बसहिं प्रयागा। इहां प्रकट ता पंच विभागा।

नन्दा तट दधी अस्थि दाना। अक्षय फल शत रूद्रि गोदाना।।

अक्षय, चक्र अरू गौरी कुण्डा। कल्प बृच्छ फल देत अखण्डा।।

शक्तिपीठ पुरूहूता कालिका। लीला षिवदूति क्षेम कारिका।।

नील कण्ठ बैजनाथ इहां पर। राम पूज्य अजगंध उमावर।।

अर्द्ध चंद्र रामेष्वर राजे। रक्षा हित चहुं ओर बिराजे।।

विष्णु इहां मधुकेटभ मारे। रूप वरा धर धरा उधारे।।

हंस औतार कृष्ण प्रवासा। पुष्कर जल नारायण वासा।।

सर समीप मन्दिर अति सोहे। शोभा निरखत जनमन मोहे।।

बावन द्वार गुरु के सुन्दर। सबहिं सुलभ सब समय मनोहर।।

पुष्कर मज्जन पान किये तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें।।

सकल पुण्य मय ब्रह्म सरोवर। सब तीरथ फल सफल इहां पर।।

तर्पण पिण्ड करहुं विधि नाना। बिप्र जिमाइ देहु बहु दाना।।

सुफल मनोरथ होहहिं ताकें। सेवहिं सादर जे मति पाके।।

सकल पाप पुष्कर महुं सिरहीं। इहां के पाप ब्रज सम भवहीं।।

भयउं बाघ प्रभंजन राजा। हिंसा पाप ते होइ अकाजा।।

भयउं ग्वाल जहं बृहद्रथ राउ। मात्र प्रतिच्छन पुण्य प्रभाउ।।

महिमा जान आव प्रति संवत। रखें स्वच्छता पुष्कर सेवत।।

कार्तिक चंद्र कृतिका युत होई। तीरथ गुरुहिं आव सब कोई।।

स्नान दान सदैव फलदायी। कार्तिक मास पुण्य अधिकाई।।

ब्रह्मा विष्णु सदा षिव पुष्कर। भव कारण तारण त्रिपुष्कर।।

जल थल नभ महुं पुष्कर राजे। बड़ लघु मानस मध्य विराजे।।

पुष्कर वास दान तप सुन्दर। भाग सराहहिं देखि पुरन्दर।।

नित्य महोत्सव इहां अनेका। होत विचित्र एक ते एका।।

शास्त्र पुराण ऋषि मुनि जाये। मुक्त कण्ठ पुष्कर यष गाये।

पुण्य श्लोक रिषि मंगलकारी। पुष्कर महुं महिमा अति न्यारी।।

पुष्कर नयन दिव्य अवलोका। पुष्कर भू बैकुण्ठ अषोका।।

कहो कहां लगि करो बखाना। पुष्कर केवल हरिगुन गाना।।

गावहिं पुलस्ति पद्म पुराना। अकथ जानि समासु बखाना।।

त्रीपुष्कर जे सुमिरन करहीं। रोग दोष चिन्ता सब मिटहिं।।

ब्रह्मा यज्ञ रिषि मुनि प्रसंगा। गावहिं सुनहिं ते फलहिं अभंगा।

पुष्कर यष गाथा जो गावे। सुख सम्पत्ति नाना विधि पावें।।

 

महिमा अमित पुष्करहीं, गावहिं वेद पुरान।

ठाकुर बंदउं चरण रज, गुरुहिं प्रसाद वितान।।

तन निर्मल मन षिव करें, पुष्कर कृपा निधान।

पुरुवहुं, सकल मनोरथ, करहुं सदा कल्यान।।