Hadauti Panorama, Baran

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परियोजना का नाम: हाड़ौती पेनोरमा, बारां 

(बजट घोषणा 2015-16 पेरा संख्या 53.2.0)

वित्तीय स्वीकृति: 751.00 लाख रूपये

भौतिक प्रगति:  पेनोरमा का लोकार्पण दिनांक 27-09-2018 को माननीया मुख्यमंत्री महोदया द्वारा किया जाकर आमजन के दर्शनार्थ चालू है।

हाड़ौती अंचल

राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भू-भाग में स्थित हाड़ौती अंचल अपनी विषिष्ट ऐतिहासिक, लोक-सांस्कृतिक और भौगोलिक पहचान के कारण देषभर में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रषासनिक दृष्टि से हाड़ौती अंचल के अन्तर्गत कोटा, बूंदी, बारां एवं झालावाड़ जिले आते हैं। इस अंचल का प्राचीन स्थापत्य, इतिहास, साहित्य, धार्मिक परम्परा, शौर्य, पराक्रम, भक्ति एवं त्याग की घटनाएं इतनी जीवन्त और प्रभावषाली हैं कि ये मन को मुग्ध कर लेती हंै।

भारत में चैहान हाड़ावंषीय राजपूतों का राज सर्वप्रथम 13वीं शताब्दी के मध्य में बूंदी मंे स्थापित हुआ। दो दषक बाद ही बूंदी राज्य की शाखा के रूप में कोटा के हाड़ा राज्य का निर्माण हुआ। इसी अंचल के पूर्वी भू-भाग में 18वीं शताब्दी के अंत में झालावाड़ राज्य की स्थापना हुई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राजस्थान राज्य में कोटा, बूंदी एवं झालावाड़ हाड़ौती अंचल के तीन जिला केन्द्र थे। कालान्तर में कोटा और झालावाड़ जिले के कुछ हिस्सों को मिलाकर बारां को इस अंचल का चैथा जिला केन्द्र बनाया गया।

प्राचीनकाल में यह अंचल काफी उन्नत रहा था। मौर्य, मोखरी, कुषाण, शुंग और परमार वंष के राजाओं का यहां शासन रहा। इस क्षेत्र में प्राप्त षिलालेख और अन्य पुरातात्विक सामग्री हाड़ौती के ऐतिहासिक महत्व का संकेत देती हैं। इस अंचल की कतिपय प्रमुख ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, कलात्मक एवं पुरातात्विक विषेषताओं का संक्षिप्त विवरण जिलावार निम्नानुसार है:-

बूंदी

बून्दी का नामकरण जैता मीणा के दादा बूंदा मीणा के नाम से हुआ है।

बम्बावदा के हाड़ा चैहान राव देवा ने विक्रम सम्वत् 1298 (1241 ई0) में जेता मीणा से बूंदा घाटी छीनकर बूँदी राज्य की स्थापना की थी।

राव राजा बेरसिंह द्वारा 1354 में निर्मित बून्दी का किला बून्दी शहर के उत्तर में 1426 फीट ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ है। विदेशी पत्रकार किपलिंग ने इसे ‘‘फरिश्तों द्वारा निर्मित‘‘ बताया है। बून्दी के किले में महल में जलापूर्ति की विशेष व्यवस्था थी। राजपूत स्थापत्य शैली का अनुपम उदाहरण बूंदी के महल हैं।

राव राजा अनिरूद्ध सिंह (1681-1695) ने 1683 ई. में चबूतरे पर एक द्विमंजिला छतरी का निर्माण करवाया था। यह छतरी 84 खम्भों पर टिकी हुई है। इसे चैरासी खम्भा छतरी कहा जाता है। इसमें शिवलिंग भी अवस्थित है। 

नवल सागर, बून्दी किले से कटोरे के आकार की दिखायी देने वाली प्राकृतिक झील है। झील में पानी की आवक के लिए रियासत काल से ही नालों का निर्माण किया गया है। झील के मध्य वरूण महादेव का मन्दिर है। झील के एक किनारे तन्त्र विद्या पर आधारित विशालकाय गजलक्ष्मी की मूर्ति स्थित है।

बून्दी राजमहल में स्थित चित्रशाला यहां का प्रमुख आकर्षण है। चित्रषाला में रागमाला, रासमाला एवं राधाकृष्ण के दृश्य प्रमुख है। यह विषिष्ट चित्रषैली बूंदी चित्रषैली के नाम से विख्यात है।

बून्दी के उत्तरी द्वार के बाहर जैत सागर झील है। इस झील की लम्बाई 4 कि.मी. है। इसके एक किनारे पर सुख महल है जिसका निर्माण राव राजा विष्णु सिंह ने 1773 ई. में करवाया था। 

बूंदी की राजकुमारी सलेह कुंवर जो कि हाड़ी रानी के नाम से विख्यात है, के आत्मबलिदान की गाथा विष्वविख्यात है।

बून्दी बावड़ियों के कारण विशेष प्रसिद्ध है। बून्दी की प्रमुख बावड़ियों के नाम है - राम जी की बावड़ी, रानी जी की बावड़ी, गोविन्दपुर की बावड़ी सुखी बावड़ी, मनोहर जी की बावडी, आदिनाथ महादेव की बावड़ी, धाभाई जी का कुण्ड, गुलाब बावड़ी, सिसोदिया जी की बावड़ी, पुरूषोत्तम की बावड़ी, ठण्डी बावड़ी, श्याम बावड़ी, व्यास बावड़ी, भिश्तियों की बावड़ी, नाहरघूसे की बावड़ी, बालचन्द पाड़ा की बावड़ी आदि।

इन बावड़ियों में बून्दी शहर के मध्य में स्थित 46 मीटर गहरी ‘रानी जी की बावड़ी’ अत्यंत प्रसिद्ध है। इसका निर्माण रावराजा अनिरूद्ध सिंह की रानी नाथावत ने 1699 ई. में करवाया था।

बून्दी के शासकों ने प्रसिद्ध केषवराय जी का मन्दिर 1703 ई. में बनवाया था। यही स्थान केषवराय पाटन के नाम से जाना जाता है। यह स्थान प्राचीन ऐतिहासिक महत्व का है। यहां पाण्डवों द्वारा अज्ञातवास लेने का भी उल्लेख मिलता है।

केषवराय पाटन में जैन मुनि सुव्रतनाथ का अतिषय केन्द्र भी है, जो इस स्थान को प्रसिद्धि दिलाता है।

बाणगंगा नदी के तट पर के केदारेष्वर मन्दिर मंे बूंदी राज्य की स्थापना से पहले का बग्बावदा के शासक विजयपाल देव का षिलालेख भी विद्यमान है। 

सुप्रसिद्ध कवि सूर्यमल्ल मिश्रण बूंदी के राज्यकवि थे। इन्होंने वंषभास्कर की रचना कर बूंदी राज्य का इतिहास लिखा।

सूर्यमल मिश्रण के पुत्र मुरारीदान ने वंष समुच्चय और ड़िंगलकोष की रचना की।

महाकवि बिहारी अपने जीवन के आखरी दिनों में बूंदी रहे थे।

कोटा

बूंदी के राजकुमार जैतसिंह ने विक्रम सम्वत् 1321 (1264 ई0) में कोट्या (कोटिया) भील को परास्त करके अकेलगढ़ व कोटा पर अधिकार किया।

भीलों के नेता कोट्या की स्मृति में एक पत्थर स्थापित किया तथा उसके नाम पर अपनी इस नयी बस्ती का नाम कोटा रखा। 

शाहजहां ने 1631 ई. में फरमान जारी कर कोटा राज्य को स्वतंत्र राज्य की मान्यता दी। माधोसिंह यहाँ के प्रथम शासक बने। कोटा रियासत को मुगल सम्राट ने 9 परगने और दिये।

कोटा क्षेत्र में प्रस्तर युग के आरम्भ से ही सभ्यता के चिह्न उपलब्ध हुए हैं। 

तीसरी शताब्दी ई. के मौखरी शासकों के चार अभिलेख यूपस्तंभों पर उत्कीर्ण हैं जिनसे उस क्षेत्र में सम्पन्न हुए यज्ञों का विवरण मिलता है। 

चारचैमा ग्राम में एक अत्यन्त प्राचीन षिवालय है। इसमें उत्कीर्ण दो गुप्तकालीन षिलालेख हैं जिनमें षिव की स्तुति मिलती है। 

एक षिलालेख इस क्षेत्र में बौद्धधर्म के प्रभाव की जानकारी देता है। एक प्राचीन प्रस्तर-लेख में नागवंषीय सामन्त देवदत्त द्वारा एक मंदिर और संघाराम बनवाने की बात कही गई है।

कोटा गढ़ की नींव 1264 ई. में चर्मण्यवती के दाहिने तट पर बूंदी के राजकुमार जैतसिंह ने रखी। 1631 में माधोसिंह ने स्वतंत्र शासक बनाने की घोषणा के साथ ही कोटा गढ़ में महलों, परकोटों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। 

कोटा में स्थित भगवान मथुराधीष जी की प्रतिमा को औरंगजेब के अत्याचारों से बचाने के लिए 1669 ई. में बूंदी लाया गया और बाद में सन् 1744 ई. में भगवान मथुराधीष जी का कोटा में स्थापित कराया गया। यह मंदिर वल्लभ वैष्णव सम्प्रदाय का प्रमुख मंदिर है। 

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों ने कोटा के पाॅलिटिकल एजेन्ट मेजर बर्टन व उसके पुत्रों को मौत के घाट उतार दिया और पूरे शहर पर अधिकार कर लिया। 6 माह तक कोटा में क्रान्तिकारियों का शासन रहा। अंग्रेजों ने पी.ई. राबटर््स ने नेतृत्व में कोटा के विरूद्ध बहुत बड़ी सेना भेजी तब जाकर क्रान्तिकारियों से कोटा को मुक्त कराया जा सका।

हाड़ौती संभाग की कला इतिहास एवं संस्कृति के संरक्षण के लिए कोटा के महाराव भीमसिंह-द्वितीय द्वारा कोटा के प्राचीन गढ़ में 30 मार्च 1970 में राव माधोसिंह संग्रहालय की स्थापना की गई। 

कोटा के बूढ़ातीत ग्राम में प्राचीन सूर्य मन्दिर है। 50 फुट ऊँचा यह मन्दिर 9वीं शताब्दी का माना जाता है। 

कोटा से 50 कि.मी दूरी पर दर्रा घटी मंे सफेद बालुआ पत्थर के स्तम्भों पर निर्मित भीमचैरी का षिवालय हैं। मान्यता है कि पाण्डव इस श्रेत्र मे रहे थे। यहाँ से प्राप्त झलरी वादक षिला पट्टिका (तंत्रिका पट्टिका) सम्पूर्ण हाड़ौती अंचल में अनूठी है। मकरमुख व लताओं से अलंकृत इस पट्टिका में एक व्यक्ति को वाद्य यंत्र बजाते हुये दिखाया गया। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसका प्रदर्षन हो चुका है। 

कोटा से 22 कि.मी. की दूरी पर स्थित गैपरनाथ षिवालय पर्यटन और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह मन्दिर चम्बल नदी की 300 फुट गहरी घाटी में विषाल षिलाखण्ड पर स्थित है। इसका निर्माण काल 5वीं से 8वीं शताब्दी के मध्य माना गया है। यहाँ शैलचित्र भी प्राप्त हुए हैं, जो इसकी प्राचीनता के द्योतक हैं। यहाँ के झरने विषेष आकर्षण के केन्द्र हैं।

मुकन्दरा पर्वत श्रेणी में कोटा से 50 कि.मी. की दूरी पर स्थित दरा राष्ट्रीय जीव अभयारण्य सौन्दर्यमयी प्राकृतिक छटा के साथ वन्यजीवों के विचरण एवं पर्यटकों के मनोरंजन हेतु विषेष आकर्षण का केन्द्र है। 

कोटा का दषहरा भारत में सर्वाधिक प्राचीन है। यह परम्परा 15वीं शताब्दी से निरन्तर चली आ रही है। यह उत्सव 20 दिन तक चलता है। 

हाड़ौती क्षेत्र में कोटा जिले के सांगोद का न्हाण काफी प्रसिद्ध है। न्हाण का प्रचलन 9वीं शताब्दी से माना गया है। इसमें न रंग होता है, न पानी व न गुलाल। विभिन्न देवताओं की पूजा के बाद ब्रह्माणी माता की पूजा होती है। रातभर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। 

बडवा-यूप स्तम्भ लेख ब्राह्मी लिपि मे अंकित 238 ई. के हैं। ये अभिलेख मौखरी वंष के है और ये कोटा के संग्रहालय मंे संरक्षित है। हाड़ौती मंे ये अवषेष वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के प्रतीक है। 

कन्सुआ मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध कर्णेष्वर महादेव का निर्माण वि.सं. 795 (738 ई.) में राजा षिवगुण मौर्य ने करवाया था। मन्दिर के बाहरी भाग मंे कुटिल ब्राह्मी लिपि मंे षिलालेख है। 

कोटा नगर के मध्य स्थित किशोर सागर झील का निर्माण 1346 ई. में कराया। झील के मध्य ही जगमन्दिर महल स्थित है। नाव द्वारा जग मन्दिर तक पहुँचा जा सकता है। चम्बल उत्सव के समय यह महल विषेष आकर्षण का केन्द्र रहता है।

राज्य प्राच्य प्रतिष्ठान कोटा में कई दुर्लभ ग्रन्थ संग्रहीत है। ताड़पत्र पर लिपिबद्ध 168 पत्र ग्रन्थ तेलगू में संग्रहीत है। भोजपत्र पर लिखित दुर्गा सप्तषती की पाण्डुलिपि हैं। 

बारां

बारां जिले का गठन 10 अप्रेल 1991 को किया गया। इससे पूर्व यह क्षेत्र कोटा जिले के अन्तर्गत रहा। इस जिले में प्राचीनकालीन समृद्ध इतिहास के चिह्न मिलते हंै। 

अटरू तहसील के शेरगढ़ कस्बे में प्राप्त एक षिलालेख इस क्षेत्र में व्याप्त बौद्ध धर्म के संकेत देता है। विक्रम संवत् 870 के इस संस्कृृत लेख में नागवंषीय सामन्त देवदत्त द्वारा एक मंदिर और संघाराम बनवाने की बात कही गई है। इसके लेखक जज्जक और उत्कीर्णक चणक थे। 

यहां से एक 10वीं शताब्दी का संस्कृत षिलालेख भी प्राप्त हुआ है, जिसमें नागवंषीय राजा मलयवर्मन के विजयोत्सव का उल्लेख हैे। 

14वीं-15वीं शताब्दी में यहां सोलंकी राजपूतों का शासन रहा।

शाहबाद का किला बारां से 80 कि.मी. की दूरी पर है। इस किले का निर्माण 1521 ई. में (वि.सं.1577) में चैहान वंश के धान्धेल राजपूत मुकुटमणि देव द्वारा बनवाया गया था। 

बारां जिले में सीताबाड़ी प्रमुख पर्यटक एवं ऐतिहासिक स्थल है। ऐसी लोकमान्यता है कि सीता माता अपने वनवास काल मेें इस स्थान पर रही थी। लवकुश का जन्म स्थान भी यही माना जाता है। 

यहां प्रतिवर्ष सहरिया मेला लगता है। यह मेला वैषाख पूर्णिमा से ज्येष्ठ अमावस्या तक लगता है जिसमें आस-पास के क्षेत्रों से बहुत बड़ी संख्या में भक्तगण इकट््ठा होते है और वाल्मीकि के मंदिर में प्रसाद चढ़ाते है।

शेरगढ़ का किला अटरू तहसील में परवन नदी के तट पर छोटी पहाड़ी पर स्थित है। 790 ई. का यहां पर एक पाषाण अभिलेख मिला है जो यहां की महत्वपूर्ण धरोहर है। 

लाल पत्थर से निर्मित नाहरगढ़ किला प्रभावशाली स्थापत्य कला का प्रमाण है। मुगल काल का यह सुन्दर उदाहरण है।

परवन की सहायक नदी विलासी नदी के किनारे विलासगढ़ के प्राचीन गढ़ के अन्दर मन्दिरों की नगरी है जो प्रागैतिहासिक काल से 13वीं शताब्दी तक के प्रमाण संजोये हुये हैं। 

विलासगढ़ का कन्यादह, चारखम्भा विष्णुमन्दिर, जैन मन्दिर, दीयों की चांदनी प्रमुख है। यहाँ पर प्रागैतिहासिक शैलचित्र भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।

कपिलधारा/प्राकृतिक सौन्दर्य से युक्त एक सुहावना पर्यटन स्थल है। यहां की पहाड़ी में गोमुख से सदैव पानी गिरता रहता है। यहां पर भी प्रागैतिहासिक शैलचित्रों की प्रचुरता है। 

छीपाबड़ौद तहसील में सारथल में परवन नदी के तट पर प्राचीन स्थापत्य कला एवं संस्कृति के प्रमाण के रूप में भीमगढ़-काकुनी का विषेष महत्व है। 1970 से यह स्थान संरक्षित स्मारक है।

सोरसन गांव सोरसन माताजी, सोरसन वन्य जीव अभयारण्य एवं प्रागैतिहासिक शैलचित्रों के लिए प्रसिद्ध है। यहां पर प्रसिद्ध ब्रह्माणी माता का मन्दिर है। परम्परागत जनश्रुति के अनुसार सोरसन माताजी की अखण्ड ज्योति गत 400 वर्षों से प्रज्ज्वलित है। शिवरात्रि पर प्रति वर्ष यहां मेला लगता है।

सारेसन वन्यजीव अभयारण्य लगभग 41 वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में फैला हुआ है। परवन नदी के किनारे लम्बाई में यह अभयारण्य 17 कि.मी. फैला हुआ है। 

रामगढ़ का षिव मन्दिर भण्डदेवरा के नाम से प्रसिद्ध है। यहां पर  प्राचीन शैव एवं तांत्रिक संप्रदाय से संबंधित मूर्तियां है। इनमें अधिकांश मिथुन मूर्तियां होने के कारण स्थान का नाम भण्डदेवरा कहलाता है।            

रामगढ़ के इस घेरे में माला की तलाई, पुष्कर सागर, नोलखा तालाब, रावण की तलाई, बावड़ियां, कुए, कुण्ड, मठ, चबूतरे, साधु-सन्तों की समाधियां, गुफाएं, अन्नपूर्णा एवं कृष्णायी माता का मन्दिर, तांत्रिक युगीन सभ्यता का प्राचीन गढ़ आदि आकर्षण के केन्द्र हैं। 

झालावाड़

झालावाड़ राज्य की स्थापना 1791 ई. में कोटा राज्य के दीवान एवं प्रमुख सरदार झाला जालिम सिंह द्वारा उम्मेदपुरा सैनिक छावनी के रूप में की गई। 

1838 ई. में इसे कोटा से अलग स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया। जालिम सिंह के पौत्र मदन सिंह को महाराजा की पदवी दी गई। 

झालावाड़ किले का निर्माण महाराजा मदन सिंह ने 1838 से 1845 ई. में पूर्ण किया था। गढ़ के जनाना खास में दीवार पर फ्रेस्को पंेटिंग एवं काँच की कारीगरी विशेष उल्लेखनीय है।

चन्द्रभागा नदी के तट पर प्राचीन चन्द्रावती नगरी के भी अवशेष मिले हैं। यहीं पर चन्द्रभागा मन्दिर समूह भी है। इन मन्दिरों का काल 7वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक का है। 

झालरापाटन के निकट चन्द्रभागा नदी के तट पर 7वीं शताब्दी में राजा विक्रमादित्य के उत्तराधिकारी परमार राजा चन्द्र सेन ने चन्द्रावती नगर को बसाया। 

उत्तर के दक्षिण भारत के मध्य चन्द्रावती प्रमुख व्यापारिक केन्द्र रहा।  झालरापाटन तेल व कपास के व्यापार का प्रमुख केंद्र था। 

17वीं शताब्दी में औरंगजेब ने इस नगरी को ध्वस्त कर दिया। इसके 100 वर्ष बाद झाला जालिम सिंह ने चन्द्रावती नगरी के ध्वंसावषेषों से झालरापाटन बनाया। 

सूर्य मन्दिर झालरापाटन का प्रसिद्ध मंदिर है। मन्दिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में किया गया। इसकी ऊचाई 100 फिट है। मंदिर में पद्मनाभ की प्रतिमा की पूजा होती है जो कि गर्भगृह में स्थापित है।अतः यह मन्दिर पद्मनाभ मन्दिर के नाम से भी प्रसिद्ध है। पद्मनाभ की मूर्ति 18वीं-19वीं शताब्दी की है। 

भवानी नाट्यशाला का निर्माण महाराजा भवानी सिंह (1897-1929) द्वारा 1929 ई. में किया गया। इसका निर्माण नाटकों के मंचन एवं सांस्कृतिक घटनाओं की अभिव्यक्ति के लिए किया गया। राज्य की आधुनिक तर्ज पर बनी यह बहुत पुरानी नाट््यषाला है।

गागरोन का दुर्ग आहु और कालीसिन्ध नदी के संगम पर स्थित है। किले का निर्माण काल 8वीं से 14वीं शताब्दी तक का है।

चैदहवीं शताब्दी में यहां के षासक चैहान प्रताप राव खींची        (1359 ई.-1420 ई.) ने राज्य त्यागकर संन्यास ग्रहण कर लिया और रामानन्द के षिष्यश्बनश्गये। ये संत पीपाजी के नाम से विख्यात हुए। यही पर सन्त पीपाजी आश्रम है। 

इसी दुर्ग में प्रसिद्ध सूफी सन्त मीठे शाह की दरगाह भी है। 

मन्दिर स्थापत्य एवं धार्मिक महत्व की दृष्टि से चांदखेड़ी के 17वीं शताब्दी के जैन मन्दिरों का अत्यधिक महत्व है। 

गंगधार का किला झालावाड़ से 120 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह 480 ई. का शिलालेख प्राप्त हुआ है। यह लेख झालावाड़ संग्रहालय में प्रदर्शित है।

झालावाड़ जिले के कोलवी, हाथियागोड़, विनायगा में बौद्ध गुफाएं एवं बौद्ध स्तूप हैं जो स्थापत्य कला एवं शैलकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। इन अवशेषों से राजस्थान में बौद्ध धर्म के अस्तित्व का भी संकेत मिलता है। 

कोलवी में लगभग 50 गुफाएं हैं। इनमें भिक्षुकों के लिए आवास, पूजा स्थल, स्तूप, बुद्धप्रतिमा का निर्माण पहाड़ी चट्टान की कटाई करके बनाये गये है। इन बौद्ध गुफाओं का समय 5वीं शताब्दी माना गया है।

कोलवी के अलावा हाथिया गौड़ के बिनायगा में भी बौद्ध गुफाएं मिलती है। यहां लगभग 20 गुफाएं है जो पहाड़ी की दक्षिण दिशा में स्थित है। 

मंदसौर के शासक विष्ववर्मन के सचिव मयूराक्षक का वि.सं. 480 का लेख झालावाड़ जिले में गंगधार से मिला है। इनमे मयूराक्षक द्वारा देवी के विष्णुमन्दिर बनाये जाने का उल्लेख है।