Hasan Khan Mewati Panorma, Alwar

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वीर हसन खां मेवाती पेनोरमा, अलवर 

(बजट घोषणा 2016-17 पेरा संख्या 59.0.0)

वित्तीय स्वीकृति: 136.48 लाख रूपये

भौतिक प्रगति: पेनोरमा का लोकार्पण दिनांक 27-09-2018 को माननीया मुख्यमंत्री महोदया द्वारा किया जाकर आमजन के दर्शनार्थ चालू है।

 

वीर हसन खां मेवाती के जीवन का संक्षिप्त परिचय

देशभक्त राजा हसन खां मेवाती: देशभक्त राजा हसन खां मेवाती अलवर के शासक अलावल खां का पुत्र था। अलावल खां सांभरपाल की तीसरी पीढ़ी में हुआ था। हसन खां दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी का मौसेरा भाई था। इब्राहिम लोदी के पिता सिकन्दर लोदी एवं अलावल खां आपस में साड़ू भाई थे। इन दोनों का विवाह अफगान सरदार अज़ीम हुमायूं खां शेरवानी की पुत्रियों से हुए थे। हसन खां अत्यन्त शूरवीर, साहसी, निडर एवं महत्वाकांक्षी शासक था। सन् 1517 ई0 में जब इब्राहिम लोदी दिल्ली के सिंहासन पर बैठा तो मेवात के वे सात परगने जो हसन खां के पिता अलावल खां से छिन गये थे उनको इब्राहिम लोदी ने लौटा दिये तथा ‘शाह’ की उपाधि से सम्मानित किया। इस प्रकार राजा हसन खां मेवाती का राज्य अलवर से लेकर दिल्ली तक फैला हुआ था, जिसमें तिजारा, सरहटा, कोट कासिम, फिरोजपुर, कोटला, रेवाड़ी, तावड़ू, झज्जर, सोहना, गुड़गांव, बहादुरपुर, शाहपुर तथा समस्त मेवात का क्षेत्र आते थे।

कुषल शासक हसन खां मेवाती: हसन खाँ ने कुषलतापूर्वक इस जिम्मेदारी को संभालते हुए अलवर और मेवात को समृद्ध बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हसनखां पहले शासक थे जिन्होंने अलवर में स्थिर शासन का सूत्रपात किया। इससे पूर्व अलवर या मेवात किसी एक निर्दिष्ट रियासत के रूप में नहीं थे। हसन खां के शासन काल में मेवात ने उन्नति के षिखर को छुआ। उसके कुषल शासन काल में मेवात राज्य की वार्षिक आय चार करोड़ टंका (चांदी का एक सिक्का) थी। अलवर का बाला किला जो पूर्व में मिट्टी और पत्थरों से बना हुआ था का हसन खाँ ने पुनर्निर्माण करवाया। चूने की पक्की दीवारों पर कंगूरे और बुर्ज बनवाकर उसे मजबूती और खूबसूरती प्रदान की जो आज भी शान से खड़ी हैं। ‘बाल-ए-किला’ का अर्थ चोटी पर बना किला होता है। अलवर का यह किला अरावली की एक ऊंची चोटी पर बना हुआ है जिसके चारों और गहरी घाटी है। पहाड़ की आखिरी ढलान पर किले की दीवारें बनाई गई है जो कि सामरिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। 

‘षाह-ए-मेवात’ हसन खां मेवाती: हसन खां ने किले के अन्दर कई भवन, मस्जिदें, कुएं एवं बावड़ी बनवाये। अलवर शहर में भी एक बावड़ी का निर्माण करवाया था। उन्होंने टपूकड़ा, तावडू, रामगढ़, किषनगढ़, कामां, गोविन्दगढ़, तिजारा, भौंडसी आदि स्थानों पर मकबरे, सड़कें और सरायें बनवाई जिनके अवषेष आज भी देखे जा सकते हैं।

राजा हसन खां मेवाती ने अलवर को अपनी राजधानी बनाया और इसे एक सुन्दर नगर के रूप में विकसित किया था। इस शहर में भवनों एवं तालाबों के अलावा कई बाग भी लगवाये गये थे। उसने तिजारा को भी अपनी अस्थाई राजधानी के रूप में स्थापित किया था, जो इससे पूर्व मेवात रियासत की राजधानी था, ताकि आपातकाल में इसका उपयोग किया जा सके।

हसन खां अपने पिता के शासनकाल में ही सेना का प्रमुख बन गया था। उसने अफगानों के खिलाफ एक महत्वपूर्ण लड़ाई में भाग लिया और विजय प्राप्त की थी। उसने लगभग दस हजार मेवों की एक मजबूत फौज का गठन किया। हसन खां मेवाती ‘षाह-ए-मेवात’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

निर्भीक एवं निडर शासक: उसके शासन काल में मेव कौम एक बहादुर एवं निडर कौम के रूप में स्थापित हो चुकी थी तथा मेवों ने लूट-मार छोड़ कर अपने राजा के नेतृत्व में दिल्ली के आस-पास मेवाती राज्य को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया था।

हसन खां अत्यन्त निर्भीक एवं निडर शासक था। वह अतिथि सत्कार करने में भी पीछे नहीं रहता था। जब मुजफ्फर खां गुजराती का पुत्र शहजादा बहादुर खां हजरत मुईनुद्दीन चिष्ती की जियारत करने अजमेर आया तो उसने हसन खां की ख्याति सुनी और वह उनसे मिलने मेवात आया। हसन खां ने जब ये सुना तो उसके सत्कार के लिए स्वयं पहुंचा तथा बड़ी धूम-धाम के साथ उनका सम्मान किया।

विद्याप्रेमी शायर हसन खां मेवाती: बहादुर एवं कुषल योद्धा होने के साथ ही हसन खां विद्याप्रेमी तथा स्वयं एक अच्छा शायर था। वह विद्वानों का आदर करता था तथा शेरो-षायरी की महफिलों में भाग लेता था। अकबरनामा में जिन महान् योद्धाओं का जिक्र आता है उनमें शेरषाह सूरी, बाबर, बैरम खां, राणा सांगा तथा हसन खां मेवाती के नाम अग्रिम पंक्ति में आते हैं। हसन खां द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियां इस प्रकार है:-

रबि तारीख वो राह बारीक

व मन्जिल दूर राहे न दो बस्मन कर दे

हमराह बजुजा इजद पनाह ने, कुन्द हर दम हसन खां

ई अषनाये जाप पाक इक के,

आ शाह अस्त बरषाहान वो बराये हेच शाहने।

 

अब्दुल कादिर बदायूंनी ने भी अपनी पुस्तक ‘मुन्तखिब-उल-तवारिख’ में हसन खां द्वारा रचित कुछ हिन्दी दोहों का उल्लेख किया है।

संघर्षषील हसन खां मेवाती: भारत पर बाबर का आक्रमण होने के बाद 21 अप्रैल 1526 ई. को पानीपत की पहली लड़ाई बाबर और इब्राहिम लोदी के बीच हुई जिसमें अपने पिता अलावलखाँ के साथ हसनखाँ मेवाती भी बाबर से लड़े थे। पानीपत के इस युद्ध में इब्राहिम लोदी की पराजय होने पर राजा हसन खां मेवाती भी अपने चुने हुए सरदारों के साथ जंगलों में भटकता रहा। डेढ़ साल तक बाबर की सेना उसे मेवात के एक सिरे से दूसरे सिरे तक खदेड़ती रही, किन्तु मेवातियांे की सहानुभूति और अपने अदम्य उत्साह से उसने मुगलों को चैन न लेने दिया और निरंतर संघर्ष करता रहा। 

स्वाभिमानी देषभक्त हसन खां का वचन: बाबर से लोहा लेने के लिए बिखरे हुए राजपूत राजाओं की सेना को संगठित कर बयाना के मैदान की ओर बढ़ रहे राणा सांगा ने हसन खां मेवाती को भी निमंत्रण दिया। उधर बाबर ने भी अपने प्रतिनिधि मुल्ला तुर्कअली और नजफबेग को सुलह का प्रस्ताव लेकर हसन खां के पास भेजा। इस प्रस्ताव के साथ में भेंटस्वरूप अषर्फियों के कई थाल, दास-दासी और नीलम के मूठ की एक तलवार भी भेजी गई थी। बाबर ने मित्रता के प्रदर्षन हेतु हसन खां के लड़के को भी, जिसे पानीपत के मैदान में उसने बन्दी बना लिया था, रिहा कर दिया। किन्तु स्वाभिमानी देषभक्त हसनखाँ ने बाबर से संधि करने के बजाय राणा सांगा का साथ देने का निर्णय लिया और अपने हजारों सैनिकों के साथ युद्ध करने निकल पड़ा। उसके धर्मगुरु सैयद जमाल अहमद ने उसे बाबर से न लड़ने की सलाह दी लेकिन उसने मजहब के बजाय वतन को बड़ा मानते हुए इस सलाह को भी अनसुना कर दिया। रणक्षेत्र की ओर प्रस्थान करते समय उसने प्रजा को वचन दिया कि या तो वह मेवात की आजादी लेकर लौटेगा या उसकी लाष अलवर लौटेगी। 

खानवां युद्ध में हसन खां मेवाती की वीरगति: बयाना मंे राणा सांगा और हसनखाँ की सेनाएं एक साथ मिली। 28 फरवरी 1527 ई. को फतहपुर सीकरी के उत्तरी अंचल में इस संयुक्त सेना के साथ बाबर का भीषण युद्ध हुआ जिसमें बाबर हार गया था। बाबर अपनी सेना को संगठित करके पुनः युद्ध हेतु खानवा के मैदानों में आ डटा। 17 मार्च 1527 ई. के उस ऐतिहासिक युद्ध में रणभूमि में महाराणा सांगा ने शत्रु सेना को पीडे धकेल दिया। बाबर की सेना अपनी पराजय होते देख घबरा उठी। 

युद्ध में राणा सांगा के घायल होने पर उनके सैनिक राणा सांगा को बचाकर दूर ले गये। तो हसनखाँ ने युद्ध का मोर्चा संभाला और अपने शौर्य का प्रदर्षन किया। किन्तु मुगल सेना की तोपों के सामने हसनखां की सेना बहुत देर तक टिक नहीं सकी और आखिर में एक बाण उसके मस्तक पर लगने से वह वीरगति को प्राप्त हो गया। जमाल खां, फतहजंग और हुसैन खां जो उसके निकट संबंधी थे उसकी लाष को अलवर ले आये और नगर के उत्तरी पाष्र्व में उन्होंने उसे दफना कर एक छतरी बनवा दी जो आज भी हसनकी के नाम से प्रख्यात है।  

रहतो जंग अधूरो खानवां.....

उधर, बसवा नामक गांव में घायल अवस्था में अपना उपचार कराते हुए राणा सांगा का भी प्राणान्त हो गया। देष की स्वतंत्रता की रक्षा हेतु मेवाड़ी और मेवाती दोनों नायक शहीद हो गए। विदेषी आतताई का मुकाबला करने हेतु राणा सांगा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहने वाले पराक्रमी योद्धा हसनखाँ मेवाती की देषभक्ति, साहस और शौर्य की गाथा सदियों तक भारतीयों को प्रेरणा देती रहेगी। मेवात क्षेत्र में आज भी यह बड़े गर्व के साथ गाया जाता है कि -

बाबर सू जा कर लड़ो, रोप दई छाती।

रहतो जंग अधूरो खानवा, हसन खां जे ना होतो मेवाती।।

 

यह मेवाती वह मेवाड़ी मिल गए दोनों सेनानी ।

हिन्दू-मुस्लिम भाव छोड़ मिल बैठे दो हिन्दुस्तानी।।

‘तुजके बाबरी’:

 

बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘तुजके बाबरी’ में हसन खां मेवाती के बारे में विस्तार के साथ जो लिखा है वह इस प्रकार है:-

‘‘जैसे ही मैंने दिल्ली और आगरा पर विजय प्राप्त की, भारत के अन्य सभी सरदारों ने मेरी अधीनता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। सन् 932 ई0 में मेवात के शासक हसन खां मेवाती ने भी मेरे विरुद्ध विद्रोह का झण्डा उठा लिया तथा खुद दृढ़ विष्वास के साथ अलवर के किले में सुरक्षित जा बैठा। दरअसल यह बेवकूफ ही सारे फसादों की जड़ है। इसका बेटा नाहर खां पानीपत की लड़ाई के समय से जमानत के रूप में मेरे पास था जाहिर है वह अपने बेटे की रिहाई के लिए मेरे पास आता रहता था। अतः मेरे कुछ सरयारों की इच्छा थी कि हसन खां को अपनी तरफ मिलाने के लिए उसके बेटे को उसके पास भेज दिया जाये, तो संभव है वह मेरी अधीनता स्वीकार लें। अतः उसके बेटे नाहर खां को शाही पोषाक पहना कर तथा इनाम का वचन देकर उसके बाप के पास भेज दिया।

जैसे ही राजा हसन खां ने ये समाचार सुना उसने खुले आम राणा सांगा का साथ देने का ऐलान कर दिया तथा लगभग दस हजार मेव सैनिक लेकर राणा सांगा का साथ देने निकल पड़ा। यह मेरी भयंकर राजनैतिक भूल थी। बड़े खेद की बात है उस वक्त उसके बेटे को छोड़ना उचित सिद्ध नहीं हुआ। मैंने पूर्व के बादषाहों की तरह हसन खां पर विष्वास एवं दया की नजर रखी परन्तु इस अहसान फरामोष ने मेरी दया का ख्याल न रखा तथा जगह-जगह मेरे विरुद्ध विद्रोह की आग भड़का दी।

‘‘मेवात, दिल्ली के आस-पास एक उपजाऊ प्रदेष है जिसकी वार्षिक आय चार करोड़ टंका चांदी है। दरअसल हसन खां को मेवात की सत्ता अपने पूर्वजों से प्राप्त हुई थी। उसके पूर्वज लगभग पौने दो सौ वर्ष से इस प्रदेष पर शासन करते आ रहे थे। जब मैंने भारत पर विजय प्राप्त की तो पुराने बादषाहों की तरह हसन खां पर भी दया दर्षाई। परन्तु उसने दया का ख्याल न रखा क्योंकि इसका हृदय हिन्दुओं की ओर झुका हुआ था। यहां जितने भी झगड़े-फसाद हुए उन सबकी जड़ यही था। इसने राणा सांगा के साथ षडयन्त्र कर सुल्तान सिकन्दरषाह लोदी के पुत्र मुहम्मदषाह लोदी को मालवा से दिल्ली का सुल्तान बनाने के लिए बुलाया।’’

हसन खाँ की कथा: मेवात क्षेत्र में वीर-रस की प्रथम ऐतिहासिक रचना ‘हसन खां की कथा’ की रचना नरसिंग मेव, ने काझौता नगर में बैठ कर की थी प्रस्तुत कृति, हसन खां की कथा 213 के पत्र संख्या 124 से 135 तक, गुटका पत्र संख्या 14 से 135 तक में लिखी है यह गुटका टोडा राय सिंह, जिला टोंक (राज.) के दिगम्बर जैन मन्दिर (नेमीनाथ स्वामी) में है। रचना अधूरी है लिखने के समय से पता चलता है कि यह रचना कान्वाह की लड़ाई के 40-50 वर्ष के बाद की हो गई। स्तर है नरसिंग मेव, सूरदास के समकालीन को मषहूर मेवाती कवि थे, जो ब्रज भाषा (उस समय की मेवाती की साहित्यिक भाषा थी) जिसे पिंगल भी कहते हैं, में काव्य रचना करते थे।

अथ हसन खां की कथा प्रारभ्यतै

नारायणस्यो वीनती करो। हाथ जोर मनि आखिर भरौ।

औवनि सुरी एक खुदाई। पैगम्बर के लागौ पाई।। 1।।

बड़ पीर ख्वाजे अजमेरि। जिन तुरकाणा की माँ फैरि।

सेह गौह खाते दुखार। ख्वाजे बैठा मान कुफार।। 2।।

सौरौ शारद महा माइ। भूल्यो अखिरु देहि समझाइ।

विनाइग अखिरु दे होहि। गहो कान सिर नाऊ तोहि।। 3।।

कथा कहत मन लावहि खोडि। अखिरु देहि जम करयो जोडि।

नगर कझौता उत्तिम थान। नरसिगु मेव कथै तह ग्यान।। 4।।

तो बैकुंठम करो लही। जैसी कीनी नैन करी।

धुर वैनाख अगामी अड़े। इब्राहिम अरु गबरु लड़ै।। 5।।

सीव मेव की मथुरा पार। बावरु मेलि न सकई कार।

खेत चढ़े नरु देह न जाण। मानीह मुगल मेव की काणि।।

हूँ तो बड़ू हुआ सनमान। देखौ किसी कथहिगौ ज्ञान।

लोक महाजन बैठे आइ। नरसिगु भणइ लड़े क्यौ राई।। 6।।

राज राजनित राहे हुए। मैं कारणि को रौख्यौ गए।

भैरु मिलाल व्याही जोइ। औड़ी पड़े और की होइ।। 7।।

एतर दूनौ दौजहि हारि। सवल होइ सोले सै मारि।

जतरण रहै सवाई रौकि। बहरु जला सौभै माहि ठोकि।। 8।।

रावण हौ लंका कौ राउ। औरहि देण देतौ पाउ।

आरि चैकड़ी मो वरु दियो। मैं ही मुलकु समायो लियो।। 9।।

गरव कियो सीता ल गयौ। श्री राम कोपंतर भयो।

बन्दर लिडे अठारह कोडि। दषगिर मारै दषगिर तोडि।। 10।।

लंका रामु ले गयो मारि। कंचन फैलि गए संसारि।

परदुख भंजन राइ अजीतु। राजा बड़ौ विक्रमाजीतु।। 11।।

मरदुख मानै याको करै ताकी आकु दुनी महि फिरै।

कितै कितै हुए भौवाल। भै उपरि झाडे करवाल।। 12।।

भैरु मिहासू व्याही जोइ। मरती बेरा साथि न सोइ।

तखति बैठि इब्रहमु रज्यो। मैं कहुवावरु काबिल सज्यो।। 13।।

देख नास की जिन्ता नाहि। पासे खेलै हरमन माहि।

पासे खेलै खेलै सार। हिन्दु देष लियो सब मारि।। 14।।

ताइ अइ के थाने फिरे। हिन्दु आइ चोली उतरे।

मकनु बठौ थौ खाके राजि। सांगा आगै चालौ भाजि।। 15।।

दहरु बात का दिल महि गई। तबही तहि अलवाई भई।

जम्बू देष पड़यो तब सोरु। मुगलन पारि लियो लाहौरु।। 16।।

मारि-कूठि बहडि धर गए (यौ)। गाढी दिठु करि दाउ दियौ।

अदि देसु लोदी को राजु। मति होणों कछु नाही साज।। 17।।

तार्क कोइ करावग नाहि। घर फूटे ते खामो जाड़ि।

जसन अखाड़े उपरि जाउ। मकनु कहै दा दीजिहि पाई।। 18।।

भवा राज रवा तणाउ। आदभु लेड द महि निणाई।

जब तब तादी दूजी करै। वैसी खतियर दाष दियो।। 19।।

मारयो आदमु कियो कुफारु। वाके साथी सवह हजार।

पकड़ लिया बहु खान जलाल। काढ़ौ आकि उपाड़ौ खाल।। 20।।

भाके जाए मारे वीर। गरदन बहुत पजै सहतार।

बठौ रहै छत के पासि। भो वाथा मरियो विसागि।। 21।।

मंत्र अपर छन कियो रात। सैयखान मारयो परभात।

तोडी बाहु उपाड़ी पीठि। तुहरे गलै राज की काठि।। 22।।

गयो उभारौ भाजी वाउ। दादा दरु न दीजो दाउ।

तब बावरु काबिल तहि चढ़यो।..............................।।

पैगम्बर दीयो फुरमान। पकिड लाडौ गही कमान।

दीनी जिमी मुलक संसार। तो कह काई नाहि जुहयार।। 23।।

खुरासान कबिल तहि तढयो। तब बावरु घाटी निकलयो।। 24।।

कोई राम को चपै खुदाई तब काफर फतेहपुरी बलाई।

यह डेमूह पेट मांथणी। तिन देखै आवै कापनी।। 25।।

ळाकि लडन दोलाति खा गयो। कटकु समेती नदी महि बहौ।

स्याल कोट मारौ लाहौरु। सुनै उड़े सवायो मारु।। 26।।

इनसो लडै होइ गरकाब। फिरि मारयो मेहरयो कुसाब।

तब उभरे हुए सजे महमूल। बाबर पातिसाह की गडी कबूल।। 27।।

को वरत न लेई काले दाम। जर लूटे सोहनदे समान।

लगकर आए बहुत बिगार। हासी लूटी और हिसार।। 28।।

काफर आए असीते मोल। पारणोपथ जो पहुचे सोल।

लगकरे टिक्यो दिल्ली स्य आइ। करहू फरहू फिरदि आगरै जाइ।। 29।।

न तौ रही महम महि वैसि। काफर फैले तेरे देष।

तबहि तमकि उठौ भेवालु। तीनि लाख पीटे करछालु।। 30।।

सुणत फिराद बारगह दीय। देस-देस की साखती कीय।

पूरब पंडवा देस बिहार। लषकर उतरि आयो पार।। 31।।

देसु बंगाला बड़ा मुकाम। आहु रो हुआ सुलतानु।

पछिम देस खिडि गुजरात। खिडिया बादग धरु मेवात।। 32।।

लषकर गुडि करि आए ठाट। फौज जुढ़ी मथुरा के घाट।

रई उड़ी छाए असमान। साहि कहु भए सलाम।। 33।।

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भागी देसु लोगुल भोवाल। तिनका साथि इब्राहिमो मुगाल।

लियो आगरौ भाजी आउ। लोदी पड़ी हसन खां लाज।। 61।।

बहू मा कारिण मुगलन स्यो लडे। भाग आगरो अलवर पड़े।

अलवर मेउ हसन खान। दिल्ली को सेहना परधान।। 62।।

दिली मेव की बांधी लीक। टका लाख घोड़े परतीक।

जिने दिली हो गए राज। मेवाती की राखी लाज।। 63।।