Lokdevta Ramdevji Panorama, Ramdevra, Jaisalmer

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परियोजना का नाम: लोकदेवता रामदेवजी पेनोरमा, रामदेवरा 

(बजट घोषणा 2015-16 पेरा संख्या 53.2.0)

वित्तीय स्वीकृति:  354.39 लाख रूपये

भौतिक प्रगति:  पेनोरमा का लोकार्पण दिनांक 03-09-2017 को माननीया मुख्यमंत्री महोदया द्वारा किया जाकर आमजन के दर्शनार्थ चालू है।

लोकदेवता रामदेवजी के जीवन का संक्षिप्त परिचय

निःसन्तान अजमालजी:    रामदेवजी के पिताजी अजमाल जी प्रौढ़ हुये तब तक उनके सन्तान नहीं हुई थी। एक दिन अजमालजी प्रातःकाल वन की ओर जा रहे थे तब उन्हें देखकर कुछ किसान जो खेत जोतने जा रहे थे, अपने-अपने घरों की ओर वापस लौटने लगे। अजमालजी द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि ’निपुत्र’ का मुंह देखना अपषकुन होता है। इस घटना से अजमालजी को गहरी ठेस पहंुची और वे ग्लानि तथा क्षोभ के मारे भगवान विष्णु से पुत्र प्राप्ति के वरदान हेतु तत्काल द्वारका रवाना हो गये।

बाबा रामदेव जी के माता-पिता:    लोकपूज्य देवता रामदेव जी के पिता अजमाल जी पष्चिमी राजस्थान में वारूछांह (बारू छांयण) नामक गांव में दिल्ली से आकर बस गये। यहाँ के जागीरदार पम्मे बुध भाटी ने अपनी पुत्री मैणादे का विवाह अजमाल जी के साथ किया। अजमाल जी कुछ दिनों बाद वहां से प्रस्थान कर रूंणीचा गांव मे आकर रहने लगे।

बाबा रामदेव जी का जन्म:    भगवान द्वारिकाधीषजी की कृपा से मैणादे को एक पुत्र की प्राप्ति हुई। जिसका नाम उन्होंने भगवान के आदेषानुसार वीरमदेव रखा। इसके पश्चात्  वि. सं. 1409 की चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन बाबा रामदेव अवतरित हुए।

भगवान द्वारिकाधीश से भेंट:    भगवान के साक्षात् दर्षन की व्यग्रता में अजमाल जी द्वारिका पहुंचकर बिना जूते खोले मंदिर में प्रवेष करने लगे, तो पुजारियों ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने पुजारियों से पूछा कि भगवान कहां मिलेंगे? पुजारियों ने उत्तर दिया कि भगवान का निवास सागर में है और भक्त पीपाजी को भी वहीं दर्शन दिये थे। अजमाल जी इतना सुनते ही सागर में कूद पड़े और समुन्द्र तल में उन्हें भगवान द्वारिकाधीश के दर्शन हुए। भगवान ने अजमाल जी की निष्ठा से प्रसन्न होकर वरदान दिया कि वे स्वयं उनके पुत्र रूप में जन्म लेंगे। द्वारकाधीष ने यह भी आषीर्वाद दिया कि इससे पूर्व उनके एक पुत्र और होगा। ज्येष्ठ पुत्र का नाम वीरमदेव रखा गया। 

माता मैणादे को पर्चा:    षिषु रामदेवजी ने अपना पहला पर्चा (चमत्कार) अपनी मां को दिया। जब माता मैणादे अपने दोनों पुत्रों वीरमदेव और रामदेव को स्तनपान करा रही थी उस समय रसोईघर में दूध उफनने लगा। रामदेवजी ने उफनते दूध को वहीं रोक दिया और बर्तन चूल्हे से नीचे उतार दिया। इस घटना के बाद मैणादे उन्हें अवतार मानने लगी।

दर्जी को चमत्कार दिखाना:    रामदेवजी ने बचपन में घोड़े पर घूमने का हठ किया। माता मैणादे ने एक दर्जी को कपड़े का घोड़ा बनाने के लिए कहा। दर्जी जब घोड़ा बनाकर लाया तो रामदेवजी उस पर बैठे और बैठते ही वह घोड़ा आकाष में उड़ गया। इस घटना से मैणादे और अजमाल को दर्जी पर संषय हुआ कि उसने कोई जादू का घोड़ा बना दिया है और उन्होंने उसे कैद में डाल दिया। बेचारा दर्जी जब मन ही मन प्रार्थना करने लगा कि हे प्रभु! मुझे क्षमा करो और इस यातना से मुक्त करो, तभी रामदेवजी आंगन में खेलते हुए प्रकट हुए और उनका घोड़ा आंगन में खड़ा दाना खाता हुआ दिखाई दिया। दर्जी को जब कैद से मुक्त किया गया तब वह रामदेवजी के चरणों में गिर पड़ा। बालक रामदेवजी ने कहा कि यह दण्ड इसलिए भोगना पड़ा कि आपको घोड़ा बनाने हेतु नया कपड़ा दिया गया था, किन्तु आपने ऊपर का कपड़ा नया रखा और अन्दर पुराना भर दिया।

भैरव राक्षस का वध:    रामदेव जी अपने साथियों के साथ गेंद खेल रहे थे। खेल-खेल में गेंद जंगल में चली गई, जिसे खोजते हुए रामदेव जी घने जंगल में चले गए। जंगल में ऋषि बालीनाथ का आश्रम था। रामदेव जी बालीनाथ के आश्रम में पहुंच गये। बालीनाथ ने बालक रामदेव को देखकर कहा कि यहां पर भैरव राक्षस आया करता है। जिसने इस सारे क्षेत्र को उजाड़ दिया। वह केवल मुझे ही नहीं मारता परन्तु मेरे अतिरिक्त किसी भी मानव को जीवित नहीं छोड़ता है। बालक रामदेव ने अपने परिचय में स्वयं को बालीनाथ का षिष्य बताया। उसी समय वहां भैरव राक्षस आ गया। बालीनाथ ने रामदेव जी को एक गुदड़ी के नीचे छिपा दिया। किन्तु गुदड़ी को हिलती देखकर भैरव राक्षस उन पर झपटा और उनकी गुदड़ी को खींचने लगा। रामदेव जी की लीला से वह गुदड़ी जब ‘द्रौपदी के चीर’ के समान बढ़ती गई, तब भैरव राक्षस घबरा कर वहां से भाग गया। अपने घोड़े पर सवार रामदेवजी ने उसका पीछा किया और पहाड़ी पर उसे पकड़कर वध कर दिया।

सारथीया खाती को पुनर्जीवित करना:    एक दिन सवेरे जब बालक रामदेवजी अपने साथियों के साथ खेल रहे थे तो इनके एक बाल साथी सारथीया की मां बिलखती हुई आई और विलाप करते हुए कहने लगी कि, ’सारथीया अब इस संसार में नहीं रहा’। रामदेवजी तत्काल खेल छोड़कर सारथीया की मृत देह के पास पहुंचे तथा उसकी बांह पकड़ कर उठाते हुए बोले कि ’हे सारथीया तू क्यों रूठ गया? तुझे मेरी सौगन्ध है, तू अभी उठ कर मेरे साथ खेलने चल’। रामदेवजी के चमत्कार से सारथीया जी उठा और उनके साथ खेलने के लिए चल पड़ा।

बोयता महाजन के डूबते हुए जहाज को बचाना:    रामदेवरा निवासी बोयता नामक महाजन व्यापार हेतु विदेष गया। जब वह मालामाल होकर वापिस लौट रहा था तो रास्ते में समुद्र में तूफान आया और उसका जहाज डूबने लगा। अपने जीवन को संकट में पाकर बोयता सेठ ने रामदेवजी का स्मरण किया। अपनी अलौकिक शक्ति से रामदेवजी ने जहाज को बचा लिया। अपने गांव रूंणीचा में आते ही श्रद्धावष बोयता रामदेवजी के पास गया। बोयता ने रामदेवजी के सम्मुख नतमस्तक होकर निवेदन किया कि वह उनको भेंट करने हेतु जो हार लाया वह समुन्द्री तूफान में खो गया है। रामदेवजी ने मुस्कुराते हुए अपनी जेब से वही हार निकाल कर सेठ को दिखाते हुये कहा कि ’’तुम्हारे स्मरण करने पर मैंने तुम्हारे जहाज को बचाया था और अपना हार उठा लिया।’’ बोयता सेठ श्रद्धापूर्वक रूणीचे में रह कर जनता की सेवा करने लगा।

लखी बनजारा को चमत्कार दिखाना:    कहा जाता है कि एक बनजारा मिश्री की ’बालद’ लेकर रूंणीचा होते हुए जा रहा था। जब रामदेवजी द्वारा पूछा गया कि ‘बालद’ में क्या है, तो बनजारे ने बिक्रीकर के भय से मिश्री के स्थान पर नमक बता दिया। आगे पहुंचने पर जब बनजारे ने किसी सेठ को मिश्री बेचने के उद्देष्य से बोरी खोली तो मिश्री के स्थान पर नमक था। वह दौड़ा-दौड़ा पुनः रूंणीचा पहुंचा और रामदेवजी के चरणों में गिर कर क्षमा-याचना की तथा भविष्य में मिथ्या न बोलने की प्रतिज्ञा की। इस पर रामदेवजी ने नमक को पुनः मिश्री में परिवर्तित कर के बनजारे को आषीर्वाद दिया।

मक्का के पांच पीरों को चमत्कार दिखाना:    रामदेवजी की परीक्षा लेने के लिए मक्का से पांच पीर यहां आये। पीरों ने रामदेवजी के सामने अपना चमत्कार दिखाया। उन्होंने अपनी दांतुनों को चीरकर पास ही एक पंक्ति में गाड़ दिया। कुछ ही क्षणों पश्चात् वे पांचों दांतुन लहलहाते हुए पीपल के वृक्षों के रूप में परिणित हो गयी। भोजन का समय होने पर रामदेवजी पांचों पीरों को अपने घर लाये और उन्हें भोजन परोसने लगे तो उन पीरों ने कहा कि वे अपनी षीपियां (खाने का बर्तन) मक्का में ही भूल आये हैं। रामदेवजी की अलौकिक शक्ति से उसी समय उनकी षीपियां जो मक्का से तुरन्त वहां आ गयीं और जो, जिस पीर की शीपी थी, वहीं उसके आगे रखी हुई मिली। इस चमत्कार से वे पांचों पीर इतने प्रभावित हुए कि रामदेवजी को पीरों के पीर के रूप में स्वीकार कर उनके यष का गुणगान करने लगे। 

पूगलगढ़ के पड़िहारों का गर्व नाष करना:    रामदेवजी की बहिन सुगना का विवाह पूगलगढ़ के कुंवर किषनसिंह पड़िहार के साथ हुआ था। ये पड़िहार रामदेवजी को हेय दृष्टि से देखते थे। रामदेवजी ने अपने विवाह के उत्सव पर रतना राईका को पूगलगढ़ भेज कर सुगना को बुलाया तो सुगना के ससुराल वालों ने सुगना को भेजने के बजाय रतना राईका को कैद कर लिया। सुगना को इस घटना से बहुत दुःख हुआ। रामदेवजी ने अपनी अलौकिक षक्ति से सुगना का दुःख जान लिया। उन्होंने अपनी दिव्य षक्ति द्वारा एक सेना तैयार की और तत्काल पूगलगढ़ में पहुंच कर युद्ध का षंखनाद किया। रामदेवजी के दैवीय पराक्रम से युद्ध में पूगलगढ़ की सेना पराजित हो गई और पड़िहारों ने आत्मसमर्पण कर दिया। रामदेवजी ने उन्हें क्षमा कर दिया और पड़िहारों ने सम्मानपूर्वक रथ में बैठा कर सुगना को रतना राईका के साथ पीहर के लिए रवाना कर दिया।

रामदेवजी का नेतलदे से विवाह और चमत्कार:    रामदेवजी का विवाह अमरकोट के राजा दलजी सोढा की पुत्री नेतलदे के साथ हुआ था। लोकमान्यता के अनुसार यह रुकमणी का अवतार कही जाती है। पक्षाघात के कारण नेतलदे पंगु हो गई थी, किन्तु पाणिग्रहण संस्कार होते ही, रामदेवजी की अलौकिक षक्ति से उसकी पंगुता दूर हो गयी। जब वह रामदेवजी के साथ अपने पैरों से ठीक तरह से चलकर फेरे लेने लगी तो ऐसा देखकर लोगों के आष्चर्य और हर्ष की सीमा नहीं रही। 

रानी नेतलदे की सखियों को चमत्कार दिखाना:    रामदेवजी जब ‘कुंवर कलेवे’ के लिए भीतर पधारे तब रानी नेतलदे की सहेलियों ने विनोद के लिए थाल में भोजन के स्थान पर मृत बिल्ली रख कर ऊपर वस्त्र डाल दिया। जब वह थाल रामदेवजी के सम्मुख रखा गया तब रामदेवजी द्वारा वस्त्र उठाते ही बिल्ली जीवित होकर दौड़ गई। इतना ही नहीं रामदेवजी के चमत्कार से महल बिल्लियों से भर गया। 

सुगनाबाई के बालक को पुनर्जीवित करना:    जिस रात अमरकोट में रामदेवजी का विवाह हुआ, उसी रात को किसी कारणवष बहिन सुगनाबाई के पुत्र की मृत्यु हो गई। बारात सहित जब रामदेवजी वापिस पहुंचे तो घर में शोक का वातावरण था। रामदेवजी ने सुगना को बुलाया और इसका कारण पूछा। वह कुछ न बोल सकी, उसका कण्ठ रूंध गया और सिसकती हुई अपने पुत्र को पुकारने लगी। रामदेवजी ‘बधाने’ से पूर्व ही अन्दर गये और अपने हाथ से मृत बालक का स्पर्ष किया तो वह पुनर्जीवित हो गया। 

वीरमदेव की गाय का बछड़ा जीवित करना:     वीरमदेव के पास एक सुन्दर तथा षुभ लक्षणों वाली गाय थी। इस गाय का बछड़ा मर गया, इस कारण गाय ने चारा-पानी लेना छोड़ दिया और निरन्तर रम्भाती रही। इस घटना से वीरमदेव और उनकी पत्नी अत्यधिक दुःखी हुए और खाना-पानी छोड़ दिया। रामदेवजी दयालु होकर उस स्थान पर पहंुुचे जहां मृत बछड़े की चर्म एक झाड़ी पर सूख रही थी। उन्होंने अपने चिटिये से उस चमड़े का स्पर्ष किया और बोले कि तुम अपनी मां से जा मिलो। इतना कहते ही सूखती हुई खाल में प्राणों का संचार हो गया। बछड़ा दौड़ता हुआ रम्भाती हुई गाय से जा मिला। 

डाली बाई की जीवित समाधि:    बाबा रामदेवजी की अनन्य भक्त डाली बाई ने जब यह सुना कि रामदेवजी समाधि ले रहे है तो वह दौड़ती हुई रूंणीचा पहुंची और कहा कि समाधि के लिए यह जो गड्ढा खोदा जा रहा है यहां पर मैं समाधि लूंगी। वह बोली कि विधाता ने यह स्थान मेरी समाधि के लिए निष्चित किया है। डालीबाई से जब रामदेवजी ने यह पूछा कि तेरी समाधि के क्या लक्षण है तो डालीबाई ने बताया कि जिस स्थान पर आटी, डोरा एवं कांगसी निकल आए वह मेरी समाधि का स्थान है। उस स्थान को खोदने पर वस्तुतः आटी, डोरा और कांगसी निकले। रामदेवजी अपनी भक्त डालीबाई की इस चमत्कारिता से प्रभावित हो गये और उसे वहीं पर समाधि लेने की आज्ञा दी। इस प्रकार बाबा रामदेवजी से एक दिन पूर्व अर्थात् वि. स. 1442 की भादों सुदी दषमी को डालीबाई ने वहां समाधि ली। 

रामदेवजी की समाधि और तंवरों को वरदान:    बाबा रामदेवजी ने अपने संकल्पित कार्य पूर्ण कर जीवित समाधि लेने का निर्णय किया। रामदेवजी ने समाधि लेने की तैयारी की और षोक संतप्त जन-समुदाय को आध्यात्मिक उपदेष दिया। अपने माता-पिता, भाई-भाभी एवं पत्नी नेतलदे को भी ज्ञानोपदेष देकर मोह ममता से दूर करने का प्रयत्न किया। किन्तु परिजनों और एकत्रित जन-समुदाय का विलाप शान्त नहीं हुआ तो उन्होंने तंवरों को ये वरदान दिया कि आप लोग किसी के कहने पर अथवा मोह के वषीभूत होकर मेरी समाधि को मत खोलना। रामदेवजी ने भादवा सुदी एकादषी वि. स. 1442 को रामदेवजी ने जीवित समाधि ले ली। 

राणी रूपांदे व रावळ मालजी को पर्चा:    महवे के रावळ मालजी की राणी रूपांदे रात्रि में, धारू मेघवाल के घर अपने गुरु उगमसी भाटी के आगमन पर आयोजित, रामदेवजी के जम्मे में चली गई थी। वहां से जब वह एक थाल में प्रसाद लिए वापिस आई तो रावळ मालजी ने उसे बाहर जाने का कारण पूछा और क्रुद्ध होकर उसकी गर्दन काटने के लिए तलवार निकाल ली। इस पर राणी ने अपने थाल के ऊपर वस्त्र हटाया, तो थाल मंे विभिन्न प्रकार के फूल खिले हुए थे। यह देखकर मालजी आष्चर्य में भर उठे, क्योंकि इस क्षेत्र में कहीं भी उद्यान नहीं था। इस चमत्कार से प्रभावित होकर रावळ मालजी भी उगमसी के षिष्य बन गये।

मेवाड़ के सेठ दलाजी को पर्चा:    दलाजी नाम के एक सेठ ने ‘मनौती’ बोली कि यदि मुझे पुत्र-प्राप्ति होगी तो रूंणीचा जाकर रामदेवजी के दर्षन करूंगा। रामदेवजी की कृपा से उसकी पत्नी के गर्भ से पुत्र का जन्म हुआ। वह बालक जब 5 वर्ष का हो गया तो सेठ और सेठानी दोनों उसे साथ लेकर कुछ धन-सम्पति सहित ऊंट पर रामदेवरा (रूंणीचा) के लिए रवाना हो गये। मार्ग में एक लुटेरा मौका पाकर सेठ की गर्दन काटकर धन-सम्पति लेकर भाग गया। सेठानी करूण विलाप करती हुई रामदेवजी को पुकारने लगी। अबला की पुकार सुन कर लोक देवता रामदेवजी अपने लीले घोड़े पर सवार होकर तत्काल वहां प्रकट हुए और उस अबला से अपने पति का कटा हुआ सिर धड़ से जोड़ने के लिए कहा। सेठानी ने जब ऐसा किया तो सिर जुड़ गया और तत्काल दलाजी जीवित हो गये। रामदेवजी ने भक्त को इस तरह जीवनदान देकर चोर का पीछा किया और उसे दण्डस्वरूप पंगु तथा कुष्ठी कर दिया। 

रामदेवजी ने दलाजी को आषीर्वाद दिया और अन्तर्धान हो गये। दलाजी ने रामदेवरा की यात्रा की तथा वापिस लौटते समय उसी स्थान पर रामदेवजी का मन्दिर बनवाया जहां रामदेवजी ने उसे जीवन-दान दिया था। 

मेवाड़ निवासी जरगा को पर्चा:    मेवाड़ निवासी बलाई जाति के जरगा नामक एक व्यक्ति को रामदेवजी मिले और उसे अपना घोड़ा थमाकर अदृष्य हो गए। बारह वर्ष बाद वे पुनः प्रकट हुए, तब तक जरगा प्रतीक्षा करता हुआ सूख कर कंकाल हो गया। रामदेवजी ने उसे पुनः जीवित किया और तभी से यह स्थान प्रसिद्ध हो गया। षिवरात्रि के अवसर पर यहां पर रामदेवजी का जमा लगता है और प्रतिवर्ष मेला भरता है।

नेत्रहीन साधु को पर्चा:    एक नेत्रहीन साधु सिरोही से कुछ अन्य लोगों के साथ ‘रूंणीचा’ के लिए रवाना हुआ था। थक जाने के कारण ‘डाबड़ी’  नामक ग्राम में पहुंचकर इन्होंने रात्रि विश्राम किया। सुबह जब वह साधु जागा तो उसे वहां पर कोई नहीं मिला। साथ के अन्य सब लोग उसे छोड़ कर चले गए। इधर-उधर भटकने के पश्चात् वह खेजड़ी के पास बैठकर रोने लगा। रामदेवजी ने अपने भक्त के दुःख से द्रवीभूत होकर उसके नेत्र खोल दिए और उसे दर्षन दिये। उस दिन के बाद वह साधु वहीं रहने लगा। उस खेजड़ी के पास रामदेवजी के चरण (पगलिए) स्थापित करके उनकी पूजा करने लगा। 

नवलगढ जागीरदार को पर्चा:    नवलगढ के नवलसिंह की राणी रामदेवजी की भक्त थी किन्तु नवलसिंह रामदेवजी को नहीं मानते थे और रामदेवजी के प्रति अवज्ञा प्रकट करते हुए रानी को उलाहना दिया करता था। कुछ ही वर्षों बाद जयपुर के तात्कालीन महाराजा ईष्वरीसिंह अपने अधीनस्थ नवलसिंह के प्रति किसी सन्देह के कारण क्रोधित हो गये। उन्होंने नवलसिंह को बन्दी बनाकर उसकी जागीर छीन ली। इस घटना से नवलसिंह की रानी को बहुत दुःख हुआ और वह अपने आराध्य देव रामदेवजी से प्रार्थना की कि उसके पति को कैद से मुक्त करवाकर उनके स्वाभिमान की रक्षा करें। कहते है कि उसकी करुण पुकार सुन कर रामदेवजी ने महाराजा ईष्वरी सिंह को स्वप्न में दर्षन देकर नवलसिंह को मुक्त करने का आदेष दिया। बाबा के आदेषानुसार महाराजा ने नवलसिंह का राज्योचित सत्कार किया और ससम्मान नवलगढ़ की जागीरी पुनः सुपुर्द की। तभी से नवलसिंह अपनी रानी का सम्मान करने तथा स्वयं भी रामदेवजी की पूजा करने लगा। श्रद्धास्वरूप नवलसिंह ने नवलगढ़ में रामदेवजी का मन्दिर भी बनवाया।

महाराणा कुम्भा को पर्चा:    विदुर कृत छंद में मेवाड़ के महाराणा कुंभा द्वारा रामदेवजी की सेवा (पूजा) का उल्लेख है। मालवे के सुल्तान महमूद खलजी तथा गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन ने मेवाड़ पर कई आक्रमण किये थे, जिनमें उनकी पराजय हुई। इन युद्धों में अपनी विजय की कामना से महाराणा कुंभा ने रामदेवजी को स्मरण  किया। इस सम्बन्ध का छन्द निम्नानुसार है:-

’..................... जुगति कुतब देसि राणै जांणि।

पोहप सुध दध अष्यरपाणी, विगति न लाधो रात्रि विहांणी।।

थान मांन हूं सरणै थारै, मैं बांदो तूं साहिब म्हारै।

मेरा दुसमण तूं हीज मारै, बाबा हूं बलिहारी थारै।।

कीधी सेवा रांणै कूँभै, आगै बे करि जोड़ै ऊभै।

डीबी पावरि घका डाबा, बलिहारी हूं थारै बाबा।।’’

मेघवंषी हेमीबाई को पर्चा :    हेमीबाई नामक एक मेघवंषी कन्या गेनीजी की ढांणी में गेनीबाई के आश्रय में रहकर गायों को चराने जाती थी। एक दिन एक बूढ़ी गाय जंगल में गिर पड़ी। हेमीबाई गाय को अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहती थी और गाय के पास बैठी रोने लगी। तभी रामदेवजी ने प्रकट होकर हेमीबाई को दर्षन दिये। गेनीबाई के घर के मुख्य द्वार पर ‘थान’ स्थापित कर हेमीबाई सुबह-षाम थान पर पूजा करने लगी। 

रामदेवजी की भक्ति के फलस्वरूप हेमीबाई को वचन-सिद्धि प्राप्त हुई एवं दूर-दूर से श्रद्वालु लोग दर्षनार्थ आने लगे। उनकी समाधि पर प्रति वर्ष भादवा और माघ की षुक्लपक्षीय एकादषी को रामदेवजी का मेला लगता है।

माता श्री आसरीबाई को पर्चा:    सिन्ध में थारपारकर जिलान्तर्गत ग्राम खिपरा के एक सिन्धी परिवार में जन्मी आसरी बाई ने अपने घर में बाबा रामदेवजी का थान स्थापित कर उनके पगल्या (चरण) अंकित कर नित्य बाबा रामदेवजी की जोत करती रही। बाबा रामदेवजी की कृपा से आसरीबाई वचनसिद्ध और अलौकिक षक्ति सम्पन्न हुई तथा माताश्री की संज्ञा से विभूषित होकर जनजीवन में पूज्य हुई। 

अनव्यायी बकरी का दूध निकालते हरजी भाटी:    हरजी भाटी बाल्यकाल से ही बाबा रामदेव जी की भक्ति और यशोगान करते थे। एक बार वे बकरियां चराने हेतु जंगल में गये तो एक साधु ने प्रकट होकर अपना कटोरा हरजी को देते हुए बकरी का दूध पिलाने का आग्रह किया। हरजी ने कहा कि यह बकरी अनब्यायी है। साधु के आग्रह पर हरजी भाटी ने कटोरा बकरी के थनों के नीचे रख दिया। देखते-देखते वह कटोरा दूध से भर गया। साधु वेषधारी बाबा रामदेव जी ने यह बकरी का दूध पीकर हरजी भाटी को साक्षात् दर्शन दिये एवं आशीर्वादस्वरूप कपड़े का एक घोड़ा प्रदान किया।

हरजी भाटी को पर्चा:    जोधपुर में मसूरिया नामक पहाड़ पर हरजी भाटी ने एक रात्रि जागरण कराया, जिसमें बड़ी संख्या में लोग एकत्र हुए। हरजी भगत कवि और संगीतकार भी थे।

समस्त जोधपुर शहर में हरजी भाटी के नाम की चर्चा और रात्रि जागरण की प्रषंसा होने लगी। इसकी सूचना तात्कालीन जोधपुर के महाराजा विजयसिंह को मिली तो उन्होंने अपने हाकिम हजारीमल को आज्ञा देकर हरजी भाटी को बंदी बना लिया। हरजी भाटी के पास एक कपड़े का घोड़ा था जिसे वे सदैव अपने साथ रखा करते थे, और कहते थे कि यह रामदेवजी का चमत्कारिक घोड़ा है। महाराजा विजयसिंह ने हरजी से कहा कि यदि तुम रामदेवजी के सच्चे भक्त हो तो इस घोड़े को दाना खिलाओ।

कैद में बंदी हरजी भाटी ने बाबा रामदेवजी का स्मरण किया। पूरी रात बीत गई पर रामदेवजी प्रकट नहीं हुए। हताष हरजी भाटी ने अपनी कटार निकालकर ज्योंही आत्महत्या करने की कोषिष की तभी रामदेवजी ने प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया। उसी क्षण उस कपड़े के घोड़े ने इतनी भयानक हींस की कि पूरा वातावरण कांप उठा। इससे प्रभावित होकर राजा विजयसिंह ने भी अपनी आस्था प्रकट की।

महान लोकपूज्य बाबा रामदेव जी:    बाबा रामदेवजी ने अपने तैंतीस वर्ष के अल्पजीवन में ऐसे विलक्षण कार्य किये कि आज भी इनके करोड़ों भक्त श्रद्धापूर्वक इन्हें स्मरण करते हैं। इनकी शरण में आकर अपने कष्टों से मुक्ति पाते हैं। बाबा रामदेवजी श्रद्धालु भक्तों के लिए द्वारिकाधीष श्रीकृष्ण के अवतार माने जाते हैं एवं जनसामान्य इन्हें लोकदेवता के रूप में पूजता हैं। बाबा रामदेवजी ने अपनी शैषवावस्था से ही अपने परिजनों एवं श्रद्धालुओं को चमत्कार दिखाकर अपने अलौकिक व्यक्तित्व का परिचय दिया। 

रामसरोवर तालाब का निर्माण:    रूंणीचा (रामदेवरा) ग्राम में एक विषाल तालाब है, जो कि रामसरोवर के नाम से प्रसिद्ध है। यह तालाब रामदेवजी ने  ही खुदवाया था। इसी मान्यता के कारण भक्त लोग इसके स्नान को गंगास्नान के तुल्य पवित्र मानते हैं।

हिन्दु-मुस्लिम एकता के प्रवर्तक बाबा रामदेवजी:    रामदेवजी की अलौकिक शक्ति और लोक कल्याणकारी मानवधर्म के दिव्योपदेष से मक्का से आये मुस्लिम पीरों को ऐसा प्रभावित किया कि उन्होने मुस्लिम धर्मगुरूओं के गढ़ अजमेर में जाकर रामदेव जी के कल्याणकारी सन्देष का प्रचार किया। इससे प्रेरित होकर मुस्लिम लोग भी रामदेव जी को पूजने लगे, जिससे समाज में समन्वय की भावना पैदा हुई।

सामाजिक समरसता के प्रवर्तक बाबा रामदेवजी:    रामदेवजी ने अछूतोद्धार के लिए केवल उपदेष ही नहीं दिये अपितु तदनुकूल अपने आचरण और व्यवहार से छुआछूत सामाजिक बुराई को समाप्त किया। मेघवंषी जाति की कन्या डालीबाई को बहन के रूप में अपने परिवार के साथ रखा और पाल-पोस कर बड़ा किया। अछूत समझे जाने वाले लोगों के साथ वे प्रेमपूर्वक बैठकर भजन-भाव किया करते थे। सामाजिक समरसता के महान उद्देष्य को जन-जन तक पहंुचाया। 

लोकपूज्य बाबा रामदेवजी:    जन-जन के आराध्य लोकपूज्य बाबा रामदेवजी केवल धार्मिक-आध्यात्मिक विभूति ही नहीं अपितु लोक कल्याणकारी महापुरूष भी थे। बाबा के मंदिर पर प्रतिवर्ष भादवा सुदी द्वितीया से एकादषी तक विषाल मेला भरता है जिसमें राजस्थान ही नहीं अपितु गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेष, मध्य प्रदेष व अन्य राज्यों से लाखों श्रद्धालुजन बाबा राम सा पीर के दर्षन करने पहुंचते हैं।