Swatantrata Sangram Panorama, Auwa, Pali

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परियोजना का नाम: स्वतंत्रता संग्राम पेनोरमा, आउवा, पाली

(बजट घोषणा 2015-16 पेरा संख्या 53.2.0) 

वित्तीय स्वीकृति: 465.00 लाख रूपये

भौतिक प्रगति:  पेनोरमा का लोकार्पण दिनांक 30-08-2018 को माननीया मुख्यमंत्री महोदया द्वारा किया जाकर आमजन के दर्शनार्थ चालू है।

राजस्थान के स्वातंत्र्यसमर का महानायक: आउवा 

1857 की क्रांति के समय राजस्थान में ब्रिटिष सत्ता को सबसे गंभीर चुनौती देने वाले आऊवा की घटनाएँ इस प्रदेष के स्वाधीनता संग्राम का सर्वाधिक गौरवपूर्ण और रोमांचक अध्याय है। 

ब्रिटिष शासकों द्वारा किये जा रहे शोषण एवं दमन के परिणामस्वरूप 19वीं सदी के पहले दषक में ही राजपूताना में ब्रिटिश-शासन विरोधी भावनाएं फूट पड़ी थी। जब अंग्रेजों की सेना ने मल्हार राव होल्कर का पीछा किया तो वह भरतपुर की तरफ गया जहां भरतपुर के राजा रणजीत सिंह ने होल्कर को शरण दी। डीग में ब्रिटिष सेना और भरतपुर की सेना के बीच 2 जनवरी 1805 को युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेजों को भारी क्षति हुई और उन्हें अपना साजोसामान छोड़कर भागना पड़ा। इस प्रसंग पर जोधपुर के कविराज बांकीदास ने सारे देषवासियों और विषेषकर राजपूताना के राजाओं को चेतावनी देते हुए यह गीत लिखाः-

गीत चेतावणी रो

‘‘आयो इंगरेज मुलक रै ऊपर, आहंस लीधा खैंच उरा ।

धणियां मरे न दीधी धरती, धणियां ऊभां गयी धरा ।।

फौजां देख न कीधी फौजां, दोयण किया न खळां-डळा ।

खवां-खांच चूड़ै खवंद रै, उण्हिज चूड़ै गयी यळा ।।

छत्रपतियां लागी नहॅं छांणत, गढ़पतियां धर परी गुमी ।

बळ नहॅं किया बापड़ां बोतां , जोहतां-जोतां गयी जमी ।।

दुय चत्रमास वादियो दिखणी, भोम गयी सो लिखत भवेस।

पूगो नहीं चाकरी पकड़ी, दीधो नहीं मड़ैठो देस ।।

वजियो भलो भरतपुर वाळो, गाजै गजर धजर नभ गोम ।

पहलां सिर साहब रो पड़ियो, भड़ ऊभां नह दीधी भोम ।।

महि जातां चींचाता महिलां, अै दुय मरण तणा अवसांण ।

राखो रे कींहिक रजपूती, मरद हिंदू की मुसळमांन ।।

पुर जोधांण, उदैपुर, जैपुर, पह थांरा खूटा परियांण ।

आंकै गयी आवसी आंकै, वांकै आसल किया वखांण ।।’’

अंग्रेजों की भरतपुर में हुई इस पराजय के बाद ब्रिटिश शासन ने पूरी तैयारी के साथ सन् 1809-10 में जनरल लैक के नेतृृत्व में विशाल सेना के साथ भरतपुर पर आक्रमण किया किन्तु अंग्रेज सेना भरतपुर के किले पर अधिकार नहीं कर पाया। भरतपुर एवं डीग से अंग्रेज सेना को मिली चुनौती के बाद अंग्रेजों ने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन पर अंकुश लगाने एवं स्वतन्त्रता सेनानियों के दमन करने की नीयत से देसी रियासतों के साथ राजनैतिक संधियां की। जोधपुर, उदयपुर एवं राजपूताना की अधिकांष रियासतों के साथ अंग्रेजों की लिखित संधियां सन् 1818 में निष्पादित हुई जिसमें देषी रियासतों द्वारा यह शर्त स्वीकार की गयी कि यदि कोई अन्य शक्ति राजपूताना की किसाी रियासत में अंग्रेजों को चुनौती देगी तो वे सैन्य कार्यवाही में अंग्रेजों का साथ देगी। 

समूचे उत्तर भारत में लम्बे समय से क्रांति के लिए जो तैयारी चल रही थी, राजस्थान उससे अछूता नहीं था। अंग्रेज अफसरों द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना में शामिल भारतीय सिपाहियों के साथ किये जाने वाले सौतेले व्यवहार ने सिपाहियों में असंतोष उत्पन्न किया। राजस्थान की सैनिक छावनियों में यह अफवाह फैल गई थी कि सेना को भेजे जाने वाले आटे में मानव अस्थियों का चूर्ण मिला हुआ है। इसको लेकर सिपाहियों में बड़ा रोष रहा। चरबीयुक्त कारतूसों के अलावा इस प्रकार की चर्चाओं से सिपाहियों के मन में यह बात घर कर गई कि ये सब उनके धर्म को भ्रष्ट करने की चाल है। अंग्रेजों ने चरबीयुक्त नवीन कारतूसों का प्रयोग करने के लिए 19वीं पलटन का चयन किया। सारी पलटनों ने अंग्रेजों के आदेष को बडे़ साहस के साथ न केवल ठुकरा दिया अपितु ये भी चेतावनी दे डाली कि चरबीयुक्त कारतूसों के प्रयोग के लिए यदि उनके साथ किसी प्रकार की जबरदस्ती की गयी तो वे अपने हथियार लेकर संग्राम में कूद पडंे़ेगे। 

23 मई, 1857 को ब्रिगेडियर जनरल जार्ज पैट्रिक लाॅरेन्स कार्यवाहक ए. जी. जी. ने राजपूताना के सभी राजाओं के नाम विद्रोहियों को पकड़ने में उनकी सहायता करने के लिए घोषणा-पत्र जारी किया। जोधपुर रियासत के दस्तावेज ‘‘महाराजा तखतसिंह री ख्यात’’ में तात्कालीन घटना के बारे में उल्लिखित हैं कि:-    ‘‘जेठ सुद 7 नसीराबाद री छांवणी रो लोग बदळ 10 तथा 12 अंगरेजां नै मार नै मैगजीण नै षजांनां रौ बंदबस्त कर लीयौ नै अजमेर आवण रौ मनसोभो है।................................... जेठ सुद 11 किलादार अनाड़सिंघ नै मेतो छतरमल, बड़ो साहब जारज लारनस अजमेर जावै जिण कनै मेलीया पाली, सो बड़ा साहब पाली मिळियो नहीं तरै सोझत गया। नै सिसटाचार दीवी कै अपणे मुलक का षूब बंदबस्त रखो। बागी लोग आपकै मुलक में आणै पावै नहीं।’’ (संदर्भः महाराजा तखतसिंह री ख्यात, पृ.सं. 231, 232)

28 मई, 1857 को शाम को 4.00 बजे अजमेर के निकटवर्ती नसीराबाद नेटिव इन्फेन्ट्री ने विद्रोह कर दिया। क्रांतिकारी सैनिकों ने नसीराबाद छावनी को नष्ट कर दिल्ली की ओर कूच कर दिया। जोधपुर रियासत के लगभग 1000 सैनिकों ने अंग्रेजों के साथ मिलकर उनका पीछा किया परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। कर्नल न्यूबरी व मेजर स्पाटबुड को नसीराबाद के क्रांतिकारियों ने गोली मारकर ढेर कर दिया। अंग्रेज सेना के लेफ्टिनेन्ट लोन और कर्नल हाटी बुरी तरह घायल हुए। नसीराबाद छावनी का सैन्य अधिकारी वहंा से भाग छूटा और उसने ब्यावर में जाकर शरण ली। 

हिन्दुस्तान के विभिन्न क्षेत्रों में स्वतन्त्रता आन्दोलन की गूंज से प्रभावित होकर 10 अगस्त 1857 को जोधपुर लेजन के सैनिकों ने भी ऐरनपुरा छावनी में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध क्रान्ति का बिगुल बजा दिया। भारतीय स्वतन्त्रता सैनिकों ने माउण्ट आबू में अंग्रेज अधिकारियों एवं सत्ता केन्द्र पर शस्त्रों से हमला बोला। अनेक गोरे उस हमले के षिकार हुए। ब्रिगेडियर जनरल लाॅरेन्स के पुत्र ए. लारेन्स भी ऐरनपुरा के क्रान्तिकारियों की गोली से गम्भीर रूप से घायल हो गया। अनेक घण्टों तक क्रान्तिकारियों और अंग्रेजी सेना के बीच गोलीबारी हुई। लेफ्टिनेन्ट कोेनोली ने ऐरनपुरा छावनी के क्रान्तिकारियों की सूचना ब्रिटिष साम्राज्य के पाॅलिटिकल एजेन्ट माॅक मेसन को भेजी। इधर क्रान्तिकारियों ने स्वतन्त्रता आंदोलन को सषक्त बनाने के लिए मेहरवान सिंह को जनरल घोषित किया। आबू और अनादरा की क्रान्ति की घटना में अनेक ब्रिटिष समर्थक लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। 

राजपूताना के गर्वनर जनरल के प्रतिनिधि ब्रिगेडियर जाॅर्ज पैट्रिक लाॅरेन्स ने भी जोधपुर के महाराजा तखत सिंह को कठोर शब्दों में चेतावनी दी कि वे ब्रिटिष साम्राज्य को चुनौती देने वाले ऐरनपुरा छावनी के जोधपुर लेजन के इन सैनिकों के विरुद्ध यथाषीघ्र कठोर कार्यवाही कर उन्हें दण्डित करें। जोधपुर के महाराजा तखत सिंह ने किलेदार ओनाड़ सिंह पंवार और सेनापति राजमल लोढ़ा को एक हजार से अधिक सषस्त्र सैनिकों, तोपों आदि से सुसज्जित कर ब्रिटिष सत्ता को चुनौती देने वाले सषस्त्र क्रान्तिकारियों का दमन करने के लिए रवाना किया। 

जोधपुर की सेना के आने की खबर सुनकर ऐरनपुरा के क्रान्तिकारी सैनिकों ने आउवा की ओर प्रस्थान किया । ऐरनपुरा के क्रान्तिकारियों ने आउवा के ठाकुर कुषाल सिंह चांपावत से सीधा सम्पर्क किया। स्वातंत्र्य चेतना के धनी कुषालसिंह चांपावत ने क्रान्तिकारियों को ब्रिटिष साम्राज्य और जोधपुर रियासत की सेना के विरुद्ध हर प्रकार की सहायता देने का वचन दिया। नेतृत्व-कौषल के धनी आऊवा के ठाकुर कुषालसिंह चांपावत की अगुवाई में मातृभूमि के रक्षक ठाकुर षिवसिंह (आसोप), ठाकुर बिषन सिंह (गूलर), ठाकुर अजीत सिंह (आलनियावास) एवं ठाकुर पृथ्वीसिंह (लाम्बिया) एकजुट हो गये। इनका साथ देने के लिए मेवाड़ के सलूम्बर, कोठारिया, रूपनगर, लसाणी, आसीन्द के शासकों ने भी अपनी सेनाएं आऊवा भेजी जिससें आऊवा स्वाधीनता-समर के लिए एक विषाल छावनी में बदल गया।

आउवा के निकट बिठौड़ा के पास ऐरनपुरा छावनी के क्रान्तिकारियों और जोधपुर की सेना के बीच 8-9 सितम्बर, 1857 को आमने सामने युद्ध हुआ। स्वतन्त्रता सेनानियों ने जोधपुर के सेनापति राजमल लोढा़, किलेदार ओनाड़ सिंह पंवार और उनके सैनिकों को यु़द्ध के मैदान में मार गिराया गया। जोधपुर की सेना में भगदड़ मच गयी और वे युद्ध के मैदान से भाग गये। इस युद्ध में सैंकड़ों स्वतंत्रता सेनानी वीरगति को प्राप्त हुए।

आउवा के निकट बिठौडा़ के इस युद्ध में क्रान्तिकारियों की इस विजय ने केवल राजपूताना ही नहीं अपितु हिन्दुस्तान के अन्य हिस्सों में भी स्वातन्त्र्य वीरों के मन में उत्साह का नव संचार किया और ब्रिटिष सत्ता के विरुद्ध वे एकजुट होने लगे। जोधुपर की सेना के पराजित होने के बाद आउवा के ठाकुर कुषाल सिंह की कीर्ति चारों तरफ तेजी से फैली। ब्रिटिष साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष करने में आउवा के ठाकुर कुषाल सिंह का  साथ आसोप के ठाकुर षिवराज सिंह, आलनियावास के ठाकुर अजीतसिंह और गूलर के ठाकुर बिषनसिंह एवं लाम्बिया, बांका, भीमालिया, बगड़ी एवं मेवाड़ के कोठारिया, लसानी, रूपनगर, सलूंबर, राड़ावास, बींजापुर आदि के ठिकानेदारों ने दिया। 

किलेदार ओनाड़ सिंह पंवार और सेनापति राजमल लोढ़ा की क्रान्तिकारियों के हाथों मौत और जोधपुर की बड़ी सेना की हार ने माॅक मेसन को झकझोर कर रख दिया। राजपूताना के पाॅलिटिकल एजेन्ट लेफ्टिनेंट जी. एच. माँक मेसन ने स्वयं आउवा की ओर सेना के साथ प्रस्थान किया। उधर ब्रिगेडियर लाॅरेन्स ने भारी भरकम सेना के साथ आउवा का दमन करने के लिए प्रस्थान किया। 

अंग्रेज-सेना के साथ लाॅरेन्स ने आऊवा को तीन दिन तक घेरे रखा किन्तु क्रान्तिवीर सैनिकों के आगे लाॅरेन्स और उसकी सेना टिक नहीं सकी। पाॅलिटिकल एजेंट मेसन ए.जी.जी. की मदद के लिए सीधा आऊवा की युद्ध भूमि में पहुँचा और वहीं मारा गया। जिस समय मेसन आया उस समय क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता सेनानियों का नेतृत्व आसोप के ठाकुर षिवनाथ सिंह कर रहे थे। क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता सेनानीे मेसन को आते हुए देख उस पर झपट पडे़। सेनानियों ने उसको मौत के घाट उतारकर उसका सर धड़ से अलग कर दिया। मेसन का कटा हुआ सर आउवा के किले पर उत्साहपूर्वक टांक दिया। यह एक ऐसा क्षण था जब भारत के स्वतन्त्रता सेनानियों ने अंग्रजों को भारत छोड़ने के लिए चुनौती दी। 

आउवा के ठाकुर कुषाल सिंह के नेतृत्व में सैंकड़ों क्रान्तिकारियों ने ब्रिटिष सेना और जोधपुर की सेना का बन्दूकों और तोपों से मुकाबला किया। भारी गोलीबारी के सामने ब्रिगेडियर लाॅरेन्स सेना सहित अजमेर की ओर भाग गया। जोधपुर लेजन के सैनिक 10 अक्टूबर तक आऊवा में रहे।

आउवा की इस घटना ने स्वतन्त्रता सेनानियों के मन में नव-ऊर्जा का संचार किया। इससे उत्साहित होकर उन्होंने ब्रिटिष सत्ता को उखाड़ने के लिए सीधा दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। प्राप्त विवरणों के अनुसार लगभग 6 से 10 हजार तक की संख्या में स्वतन्त्रता सेनानियों की फौज दिल्ली की ओर रास्ते में ब्रिटिष सत्ता के समर्थकों पर हमला करते हुए आगे बढ़ी। राजपूताना के पाॅलिटिकल एजेन्ट ने दिल्ली की ओर प्रस्थान करने वाले इन क्रान्तिकारियों को रोकने और उन्हंें मौत के घाट उतारने अथवा जिंदा पकड़ने का आदेष अनेक रियासतों को जारी किया। किन्तु, छुटपुट घटनाओं को छोड़कर क्रांतिकारी नारनौल की ओर आगे बढ़े। 

16 नवंबर 1857 को नारनौल में ब्रिटिष सेना ने किले में आकर क्रान्तिकारियों का रास्ता रोका और आमने-सामने तोपों और शस्त्रों से युद्ध किया। ब्रिटिष सेना का अधिकारी ब्रिगेडियर गैराल्ड़ क्रान्तिकारियों के हाथों मारा गया। परन्तु ब्रिटिष सेना की संख्या अधिक थी अतः क्रान्तिकारियों ने सूझबूझ के साथ दांये-बांये होकर निकलना उचित समझा। 

ब्रिटिष सत्ता ने राजपूताना के सहयोगी शासकों से बातचीतकर आउवा के ठाकुर कुषाल सिंह चांपावत और समर्थक क्रान्तिकारियों से निर्णायक युद्ध करने का फैसला किया। ब्रिटिष सेनापतियों ने देष के विभिन्न हिस्सों से सेना को इकट्ठा किया और कर्नल होम्स के नेतृत्व में आउवा के विरुद्ध आक्रमण करने की योजना बनाई। इस बार ब्रिटिष सेना कोई मौका नहीं चूकना चाहती थी। कर्नल होम्स के नेतृत्व में एक सैन्यदल गठित किया गया जिसमें अजमेर, नसीराबाद, नीमच, मऊं व देवली से आयी रेजीमेंटों के 700 अश्वारोही, 1100 पैदल सैनिक, तोपखाना और सैनिक इंजिनीयर थे। जोधपुर दरबार की ओर से पंचोली धनरूप को अंग्रेज सेना की अगवानी करने का आदेश दिया गया। इस विशाल ब्रिटिष सेना ने 18 जनवरी 1858 को आउवा की घेराबंदी की। कुषाल सिंह चांपावत एवं उसके साथ सभी मुख्य सैनिकों, ठाकुरों और ग्रामवासियों ने आउवा के किले को शस्त्रों से सुसज्जित कर दिया और हर प्रकार के हमले का डटकर मुकाबला करने का निर्णय किया। आउवा के किले में 2000 से अधिक सषस्त्र क्रान्तिकारी सैनिकों, ग्रामवासियों एवं आसपास के नागरिकों ने अंग्रेजी सेना से मुकाबला करने की तैयारी कर ली।

19 जनवरी को अंग्रेज सेना ने आक्रमण कर 18 स्वतन्त्रता सेनानियों को गोली का निषाना बनाकर शहीद कर दिया। क्रांतिकारियों ने भी जवाबी कार्यवाई में ब्रिटिष सेना अनेक सिपाहियों को ढेर कर दिया। चार दिन तक लगातार आउवा पर तोपों, बन्दूकों से हमला होता रहा और आउवा के किले से ब्रिटिष सेना को तोपों और बन्दूक की गोलियों से प्रत्युत्तर मिलता रहा। 

23 जनवरी, 1858 को सूरज के ढ़लते-ढ़लते तेज काली आंधी आयी जिसमें हाथ को हाथ नहीं दिखाई दे रहा था। इस आंधी को एक अवसर समझकर आउवा किले में मोर्चा जमाए स्वतन्त्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध निरन्तर युद्ध जारी रखने और स्वतन्त्रता आन्दोलन को जिंदा रखने के लिए अपनी युद्ध नीति में परिवर्तन किया और सभी ने मिलकर कुषाल सिंह चांपावत को लम्बे संघर्ष का नेतृत्व प्रदान करने की दृष्टि से आउवा के किले से निकालकर सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। कुशाल सिंह चांपावत अपने कुछ सैनिकों के साथ मेवाड़ की दुर्गम पहाड़ियों की ओर चले गये। 

विषााल सैन्य शक्ति के बावजूद अंग्रेज, क्रान्तिकारी सेना से रणभूमि में पार नहीं पा सके तो फिरंगियों ने छल-प्रलोभन और षडयंत्र से आऊवा के किलेदार से गढ़ का दरवाजा खुलवाकर धावा बोल दिया। अंग्रेज सेना ने आउवा के किले पर हमला किया। सैंकड़ों सैनिक और ग्रामवासी अंग्रेज सेना का मुकाबला करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। 24 जनवरी 1858 को ब्रिटिश सेना ने जब आऊवा के किले में प्रवेश किया तो उसे न तो वहंा कुशाल सिंह चांपावत मिले और न ही उनको मौत के घाट उतारने की उनकी इच्छा पूरी हुई।

24 जनवरी, 1858 को ही ब्रिटिष सेना ने 120 स्वतन्त्रता सेनानियों को गिरफ्तार किया। इनमंें से 24 शूरवीरों को ब्रिटिष सत्ता को उखाड़ फंेकने का अपराधी मानते हुए उन्हें अलग से चिन्हित कर, गिरफ्तार दिखाकर कोर्ट मार्षल किया गया। न्यायालय में मुकदमा चलाया गया और 25 जनवरी 1858 को अदालती फैसला सुनाकर उन्हें मृत्युदण्ड देने की घोषणा की। मातृभूमि के इन वीर सपूतों के हाथ-पांव बांधकर, पंक्ति में खड़ा करके गोलियों से उनके सीने छलनी कर दिये गये। वे 24 स्वतन्त्रता सेनानी आउवा के स्वतन्त्रता समर में शहीद हो गये।

ब्रिटिश सेना ने आऊवा के किले में मिले गोला-बारूद का उपयोग कर पूरे आऊवा गांव को लगभग 10 दिन में पूर्णतः ध्वस्त कर दिया। एक भी ऐसा घर आऊवा में नहीं छोड़ा जिसमे कोई व्यक्ति रह सके। चारों ओर वीर शहीदों की लाषें ही लाषें थी। आऊवा के किले और गांव में जो बहुमूल्य वस्तुएं थी उनको भी ब्रिटिश सेनापति और उनकी सेना ने अपने कब्जे में कर लिया।

कर्नल होम्स व मेजर मोरिसन के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने आऊवा के स्वतंत्रता समर में साथ देने वाले भीमालियां, लाम्बिया, आलनियावास, आसोप, बगड़ी गूलर एवं बांता के किलों को सुरंगों में बारूद बिछाकर ध्वस्त कर दिया। आउवा के किले को ध्वस्त करने के बाद होम व मोरिसन ने आउवा के मंदिरों और उसमें स्थापित मूर्तियों को खण्ड़ित किया। आउवा की कुलदेवी सुगाली माता की मूर्ति को अंग्रेज सेना खण्ड़ित कर उठाकर ले गई, जो आज भी पाली के राजकीय संग्रहालय में संग्रहीत है। अंग्रेजी सेना ने आऊवा के गढ़ में 6 पीतल की और 7 लोहे की तोपें और तीन टन बारूद बरामद किया जो जोधपुर की सेना को सौंप दिया।

ब्रिटिश सेना ने आऊवा के प्रति अपनी क्ररता की सारी सीमाएं लांघ दी। उन्होंने इतना प्रतिशोध लिया कि न केवल गांव वालों को निर्दयता पूर्वक यातनाएं दी, उनकी हत्या की अपितु गांव के पेड़ तक काट दिये। गांव के कुओं का ढ़हा दिया गया। रिहायशी घरों को ध्वस्त कर दिया और घरों मे नागरिकांे के जो भी कीमती आभूषण, वस्त्र इत्यादि सामान थे उनको अपने कब्जे में ले लिया। पूरे आऊवा गांव को तहस-नहस कर वीरान कर दिया। 

भारत के स्वतन्त्रता संग्राम (सन् 1857-58) में अग्रेजों के शासन के विरूद्ध राजस्थान के अनेक वीर राजाओं, ठिकानेदारों और स्वतन्त्रता-पे्रमी सेनानियांे ने  अपने प्राणों की आहूति देकर क्रान्ति की मषाल को जलाये रखा। ऐसे क्रान्तिवीरांे में आऊवा के ठाकुर कुषाल सिंह जी चांपावत का नाम स्वतंत्रता के अग्रदूत के रूप में लिया जाता है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में आऊवा का नाम अमर हो गया। राजस्थान के इन रण-बांकुरे वीरों ने स्वतंत्रता के रक्षा हेतु मातृभूमि के चरणों में अपने प्राणों की भेंट चंढ़ा दी। धन्य है वह माटी जिसने इन वीरों को जन्म दिया।