Krishan Bhakt Alibaksh Panorama, Mundawar, Alwar

KRISHAN BHAKT ALIBAKSH PANORAMA, MUNDAWAR, ALWAR

परियोजना का नाम: कृष्ण भक्त अलीबख्श पैनोरमा, मुण्डावर, अलवर

(बजट घोषणा 2017-18 पेरा संख्या 66.0.0)

वितीय स्वीकृति: 362.00 लाख

भौतिक प्रगति: भवन लोकार्पण दिनांक 27-09-2018 को किया जा चूका है | शेष कार्य प्रगति पर है|

कृष्णभक्त अलीबख्श पेनोरमा, मुंडावर, अलवर

सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजस्थान एवं हरियाणा की लोकनाट्य परम्परा (ख्याल एवं सांग) को विकसित एवं सुदृढ़ आधार प्रदान करने वाली शृंखला में कृष्ण भक्त अलीबख्श का नाम अग्रणी है। अलीबख्श की गायन एवं मंचन शैली का अपना विषेष स्थान है। हरियाणा के दक्षिणी-पूर्वी अंचल जैसे रेवाड़ी, नारनौल, महेन्द्रगढ़, तावडू, गुड़गांवा, बल्लभगढ़ एवं इनके समीपवर्ती बहरोड़, किषनगढ़ एवं अलवर भूभाग (जो कि सांस्कृतिक दृष्टि से एक समान है) में विषेष रूप से भगवान् कृष्ण की लीला पर आधारित प्रचलित एवं लोकप्रिय लोकनाट्यों में अलीबख्श के लोकनाट्य सर्वोपरि हैं। उदयपुर, लोककला मण्डल के संस्थापक श्री देवी लाल सामर की राजस्थान की लोकसंस्कृति एवं लोककला के सन्दर्भ में हस्तलिखित सामग्री के अनुसार ‘‘राजस्थानी लोकनाट्य की प्रवृत्तियां’’ नामक अपनी पुस्तक में अलीबख्श का समय सन् 1845 से 1866 तक माना है। अलीबख्श के ख्यालों में हजारों की संख्या में दूर-दूर से लोग इकट्ठे हो जाया करते थे और बड़ी तन्मयता के साथ इनके खेल देखा करते थे। श्री अलीबख्श का 50-55 की अवस्था में ही देहान्त हो गया।  इनके एक बहिन थी, जिसका नाम बीबी अम्मन था और वह मुंडावर में रहती थी। बाद में अलवर के राजा उसे अलवर ही ले गये और उसकी पेन्षन कर दी। इनके लोकनाट्य रचनाकार बनने की भी बड़ी प्रेरणादायी कहानी है। इन्हें संगीत एवं खेल-तमाषे देखने का शौक था। एक बार पेहल गांव में कोई तमाषा (सांग) हो रहा था, यह भी चले गये और मंच पर बैठ गये। मण्डली के मुखिया ने ताना मार दिया कि ठाकुर साहब मंच पर बैठने का शौक है तो अपनी मण्डली बना लो। इस ताने से इनका हृदय बिंध गया। अन्तःसाक्ष्य के आधार पर इनके जन्म-स्थान, जाति तथा गुरु विषयक जानकारी मिली है। साथ ही गुरु-कृपा तथा भगवदास्था का भी परिचय मिलता है। इनका कहना है-

‘‘राजपूत हूं टीकावत, मेरा अलबख्श है नाम।

नगर मुंडावर सुबस बसो जो मेरा निजधाम।।

जो मेरा निजधाम, राम ने देख जहां पर जाया।

मैं डूबत लिया तिराय, प्रभु थारी अजब अनोखी माया।।

मैं तो हुआ मरण को त्यार, नाथ थाने अपने हाथ बचाया।

गरीबदास की मेहर से, सो मैंने मन चाहा वर पाया।

सच्चे सांई सरजनहार दास का बेड़ा लगा दो पार।।’’

गुरु से मनचाहा वर पाकर उनके आदेषानुसार सबसे पहले इन्होंने मंषा देवी की स्तुति की। इसी से इनके नये जीवन का श्रीगणेष हुआ-

‘‘मन की मंषा है यही, मंषा देवी आज।

आज सभा के बीच में, रखो हमारी लाज।।

आज लाज रख दो महामैया, और खेलन का वर दो।

तेरे द्वारे खड़े खिलार, ख्याल से पेट इन्हों का भर दो।।

अजी जे तेरा मंषा नाम है, म्हारी मंषा पूरण कर दो।

अलीबख्श आ पड़ा चरन में, हाथ शीष पर धर दो।।

कंठ खुले सुर ताल मिले, कुछ ऐसी किरपा कर दो।

दुर्गे तुम्हें मनाता हूं, शीष चरणों में झुकाता हूं।।’’

श्री अलीबख्श जी ने कला को साधना के रूप में लिया। कला को सरस्वती का प्रसाद मानकर उसे उच्चतम षिखरों पर ही रखा। लोकरंजन व लोकमंगल दोनों का समन्वय ही इनकी कला का उद्देष्य था। जहां भी इनके लोकनाट्यों का मंचन होता वहां जो भी धनराषि एकत्र होती, उसे वहीं के विकास के लिए दान कर देते। मर्यादा एवं अनुषासन के यह हामी थे। कलाकार के गायन एवं अभिनय में जहां भी जरा सी कसर दिखाई देती उसे वहीं रोक देते थे। मूढ़ा डालकर बैठ जाते थे। इन्होंने अपनी रचनाओं में भक्ति, प्रेम, शृंगार, करुणा, हास्य आदि सभी भावों को अनुस्यूत कर दिया। इनमें लोकजीवन एवं लोकसंस्कृति की झलक सर्वत्र देखने को मिलती है। रसखान की इसी कला, आस्था एवं भक्तिभावना को परिलक्षित करके भारतेन्दु हरिषचन्द्र ने मुक्तकण्ठ से कहा है कि ‘‘इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिक हिन्दू वारिये।’’ यह कथन अलीबख्श पर भी उतना ही खरा उतरता है क्योंकि ऐसे उदारमना कलाकार, मानवता के विषाल फलक पर अपनी कला के माध्यम से ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’’ का सन्देष देते है। अलीबख्श अपने षिष्यों के प्रति बहुत स्नेहभाव रखते थे। पूरण और गोपाल इनके प्रमुख षिष्य थे।  संगीत के क्षेत्र में अलीबख्श सिद्धहस्त थे। एक बार जब अलीबख्श ने मल्हार राग गाना शुरू किया तब एक बदली-सी उठी और जबरदस्त बरसात हो गई। इससे इनकी गायन विद्या की कुषलता का संकेत मिलता है। इनके तमाषे अपनी बंकिम काव्याभिव्यक्ति एवं मनमोहक नाट्य कौषल से उस युग के जनमानस को सम्मोहित किये हुए थे। इनकी लोकप्रियता के विषय में अनेक घटनाएं सुनने को मिलीं। इस प्रसंग में भी कर्नल जयदयाल सिंह ने अपने गांव में घटित एक घटना का वर्णन किया कि एक बार ‘‘निहाल दे’’ का सांग हो रहा था, झूला झूलने के प्रसंग के समय आकाष में बादल-से छा गये और वर्षा होने लगी। वर्षा धीरे-धीरे बढ़ती गई लेकिन दर्षकों ने आग्रह किया कि उस्ताद बीच में रोको मत, चलने दो। सांग चलता रहा, लोग मूसलाधार वर्षा में भी उसका रसास्वादन करते रहे। यह इनके तमाषों की लोकप्रियता का सूचक है। अन्तःसाक्ष्य से भी इसकी पुष्टि होती है-

‘‘मैं हूं ठाकर राठ का, अलीबख्श मेरा नाम।

इश्क तमाषे का लगा, मेरा छुटा मुंडावर ग्राम।।

छुटा मुंडावर गांव, आनकर जस दुनिया में लिया।

गांव-गांव में करे तमाषे, नाम बड़ों का किया।।’’

इनके भगवान् कृष्ण की जीवन लीलाओं पर आधारित गीत-भजन जन-जन में बहुत लोकप्रिय थे। उस समय 15-20 हजार की संख्या में लोग दूर-दूर से आकर अलीबख्श का तमाषा देखते थे। तमाषा सारी-सारी रात चलता रहता था और लोग इतने मन्त्रमुग्ध होते थे कि उठने का नाम नहीं लेते थे भले ही उनके सिरों पर से थाली क्यों न फिरा दें। अलीबख्श की कला के प्रेमी थे। बताते हैं कि रेवाड़ी के घन्टेष्वर महादेव के मन्दिर के जीर्णोद्धार में कुछ आर्थिक कमी पड़ी। तब अलीबख्श को बुलाया गया। उन्होंने घन्टेष्वर की स्तुति भी की और अपने लोकनाट्यों का मंचन करके इतनी धनराषि एकत्र कर दी कि मन्दिर का अपूर्ण कार्य पूरा हो गया। कवि अलीबख्श द्वारा रचित षिव स्तुति संगमरमर के पत्थर पर जो खुदवा कर लगाई गई वह बहुत प्रभावी है-

‘‘घंटेष्वर घट में बसे, घंटन की घनघोर।

सुबह शाम दर्षन करें, लोग आवते दौर।।

लोग आवते दौर, मच रहा शोर, शहर के अन्दर।

तेरे गुण गावत तर गये, गुरू गोरखनाथ, मछन्दर।।

तुम बणे जोग की खान, ज्ञान के कहिये आप समन्दर।

शहर रेवाड़ी बीच बणो, आपका इक मन्दिर।

सुमरूँ घंटेष्वर महादेव, म्हारे कभी न आवे खेव।।’’

सतत् प्रयास करने पर अलीबख्श की ये सात रचनाएं- ‘‘कृष्ण लीला’’, ‘‘पदमावत्’’, ‘‘निहाल दे’’, ‘‘नल-दमन-छड़ाव’’, ‘‘नल-दमन-बगदाव’’, ‘‘फिसाने अज़ाइब’’ एवं ‘‘गुलबकावली’’ मिली हैं। इनकी काव्यात्मकता, नाटकीयता, संगीतात्मकता, कलात्मकता, सांस्कृतिक एकता, समन्वयषीलता एवं लोकजीवन के प्रति सहज सजगता की झलक मिल जाती है। अलीबबख्श लोकनाट्यकार जनरंजन की कला में सिद्धहस्त था। हिन्दुआंे के देवी-देवताओं और मुसलमानों के पीर-पैगम्बरों के प्रति इनके मन में एक-सी श्रद्धा थी और इसी कारण ये मंच पर भी सस्वर उद्घोष करते थे कि-

‘‘हिन्दू के हर भजूं, मुसलमानों के पीर मनाऊं।

अलीबख्श दोनों दीनों के, दंगल में गुण गाऊं।।’’

जात-पात और संप्रदाय की संकीर्ण परिधियां इन्हें अमान्य थीं, इसी कारण इनकी षिष्य-मण्डली में सभी जातियों और संप्रदायों के कलाकार सम्मिलित थे। अपने उदार समन्वयवादी दृष्टिकोण के कारण अलीबख्श जन-जन के कंठहार बन गए। इन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों की लोकप्रचलित लोककथाओं को समभाव से अपने लोकनाट्यों का विषय बनाया। हरयाणवी, राजस्थानी, ब्रज एवं उर्दू भाषा का, विषय एवं प्रसंग के अनुरूप उन्मुक्त प्रयोग किया।जन-मन-रंजन में सक्षम विषयों की इन्हें सूक्ष्म पकड़ थी इसलिए मन को आल्हादित कर देने वाले शृंगारिक, दया से आर्द्र कर देने वाले कारुणिक तथा तन्मय कर देने वाले भक्ति प्रसंगों का ही इनकी रचनाआंे में बाहुल्य है किन्तु सर्वोपरि इनकी दृष्टि, व्यक्ति एवं समाज के परिष्कार एवं उन्नयन की थी। इनकी समस्त कृतियां, उच्चादर्ष, मर्यादा, आस्था और उदारता के आधार स्तंभों पर निर्मित हुई हैं। वस्तुतः ये सभी श्रेष्ठ गुण उनके व्यक्तित्व एवं विचारक्रम का अविच्छिन्न अंग बन गए थे और इसी कारण ये उनकी रचनाओं में विविध प्रसंगों के मध्य भी इतने सहज रूप में अंतर्भुक्त हुए हैं कि वे कहीं भी सायास थोपे गए से प्रतीत नहीं होते हैं। पाठक एवं दर्षक इन्हें पढ़-सुनकर आनन्दमग्न भी होता है और श्रेष्ठ गुणों को आत्मसात करने के लिए कृतसंकल्प भी। इन सब के कारण कृष्णभक्त अलीबख्श सदा-सदा के लिये भारतीय साहित्य में मृत्युंजय होकर निरन्तर जीवित रहेंगे।