Nimbarkachary Panorama, Salemabad, Ajmer

NIMBARKACHARY PANORAMA, SALEMABAD, AJMER

परियोजना का नाम: श्री निम्बार्काचार्य पेनोरमा, सलेमाबाद, अजमेर 

वित्तीय स्वीकृति: 300.00 लाख रूपए

भौतिक स्थिति: भवन का लोकार्पण दिनांक 27-09-2018 को किया जा चूका है| शेष कार्य प्रगति पर है|

श्री निम्बार्काचार्य पेनोरमा, सलेमाबाद, अजमेर

वैष्णव चतुः सम्प्रदायों में श्री निम्बार्क सम्प्रदाय अपना विषिष्ट महत्व रखता है। यह सम्प्रदाय अत्यन्त प्राचीन है। न केवल वैष्णव सम्प्रदायों अपितु शैव सम्प्रदाय प्रवर्तक जगद्गुरु आद्य श्री शंकराचार्य जी से भी यह पूर्व-वर्ती सम्प्रदाय है। अनेक शोधकर्ताओं ने सप्रमाण इसकी प्राचीनता का उल्लेख अपने शोध ग्रन्थों में किया है।सुदर्षनचक्रावतार आद्याचार्य प्रवर श्री निम्बार्क भगवान् का आविर्भाव द्वापरान्त एवं कलियुग का प्रारम्भिक काल है। आप दक्षिण भारत में पैठण निकटवर्ती मूंगी ग्रामस्थ गोदावरी के सुरम्य तट पर अति सुषोभित महर्षि श्री अरुण के आश्रम में माता श्री जयन्ती के यहां नियमानन्द के रूप में प्रकट हुये और उत्तर भारत के ब्रज भूमि गोवर्धन के सन्निकट निम्बग्राम में आपने भगवान् श्री सर्वेष्वर की आराधना करते हुये दीर्घकाल तक तपष्चर्या की। निम्बग्राम आपकी तपःस्थली है। यहां पर जगत्स्रष्टा श्री ब्रह्मा ने आपके आश्रम में दिवाभोजी यति रूप में सूर्यास्त के समय प्रवेष किया समागत अतिथि का सूर्यास्त होने पर भी सूर्यवत् श्री सुदर्षन चक्रराज के दर्षन कराके भगवत्प्रसाद से यति रूप-ब्रह्मा का आतिथ्य किया इसी से श्री ब्रह्मा जी ने अपने यथार्थ स्वरूप में प्रकट हो आपको नियमानन्द से निम्बार्क नाम-रूप से सम्बोधित किया। दार्षनिक सिद्धान्त स्वाभाविक-द्वैताद्वैत एवं भगवान् श्री राधाकृष्ण की रसमयी उपासना ही आपका सर्वस्व है। सम्प्रदाय की परम्परा श्री हंस भगवान् से प्रारम्भ होती है। श्री सनकादिक महर्षियों द्वारा उपदेष देवर्षिवर्य श्री नारद जी को एवं इनके द्वारा भगवान् श्री निम्बार्क को हुआ। श्री सर्वेष्वर प्रभु की सेवा भी उक्त महर्षियों एवं देवर्षि द्वारा परम्परया श्री निम्बार्क भगवान् को प्राप्त हुई। प्रस्थान त्रयी पर श्री निम्बार्क भगवान् ने भाष्य की रचना की। आपके ही कृपापात्र श्री निवासाचार्य जी ने आपके वृत्त्यात्मक भाष्य का और विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के पूर्वाचार्य ब्रज में ही निवास करते आये हैं। यवन शासन काल में आचार्यप्रवर श्री हरिव्यास देवाचार्य जी महाराज की आज्ञानुसार आचार्यवर्य श्री परषुराम देवाचार्य जी महाराज ने अ0 भा0 श्री निम्बार्काचार्य पीठ की स्थापना पन्द्रहवीं शताब्दी में पुष्कर क्षेत्रान्तर्गत निम्बार्क तीर्थ (सलेमाबाद) में की जो अद्यावधि अपने प्रकाष पुन्ज से आलोकित है।

निम्बार्क-दर्षन: प्रमुख दार्षनिक-सिद्धान्त एवं उपासना तत्त्व सिद्धान्त

1. श्री निम्बार्क सिद्धान्त में तत्त्वत्रय (ब्रह्म, जीव और प्रकृति ये तीनों तत्त्व) अनादि और अनन्त माने गये हैं, ब्रह्म स्वतंत्र है, जीव और प्रकृति, सदा सर्वदा ब्रह्म के आधीन हैं, किसी भी अवस्था में स्वतंत्र नहीं।

2. बुद्ध (संसारी) बद्ध मुक्त (भगवद्भक्ति द्वारा मुक्ति प्राप्त) एवं नित्य मुक्त (जो कभी भी माया के बंधन में नहीं फंसे) जीवों के ये संक्षिप्त रूप से तीन भेद हैं।

3. समस्त चराचर जगत् ब्रह्म का अंष एवं-परा परात्मिका प्रकृति (षक्ति) होने के कारण सत्य है। इसलिए किसी भी प्राणी को दुःख पहुंचाना, या उसके साथ विद्वेष, ईष्वर को ही दुःख पहुंचाना एवं उसके साथ ही विद्वेष करना है। जड़ वस्तुओं का भी दुरुपयोग करना निषिद्ध है। शास्त्र की आज्ञानुसार अचेतन तत्त्व में भी समादरणीय भाव रखना आवष्यक है।

4. स्वाभाविक भेदाभेद (द्वैताद्वैत, भिन्नाभिन्न) सिद्धान्त का भी यही रहस्य है, अर्थात् जीव रूप से चराचरात्मक विष्व-ब्रह्म से भिन्न है, किन्तु उसका अंष एवं शक्ति होने के कारण स्वभावतः अपृथक् सिद्ध अभिन्न भी है। यही स्वाभाविक भेदाभेद है।

5. जब जगत् के किसी भी अंष को मिथ्या मानना भूल है, तब प्रकृति और उसके कार्य रूप बन्धनादि भी मिथ्या कैसे कहे जा सकते हैं। हां, सच्चे बन्धन की निवृत्ति होती है।

6. बन्धननिवृत्ति एवं भगवद्भावापत्ति रूप मुक्ति भगवत् कृपा से ही होती है।

7. श्रुति, स्मृति आदि शास्त्र और आचार्य वाक्यों के किसी भी अंष में अप्रामाण्य नहीं है। तात्पर्यानुसार इनके बलाबल की व्यवस्था गम्भीर और ऊहा-पोह पूर्वक आचार्यों ने की है। उस पर आरूढ़ रहना चाहिये।

8. जीव प्रतिबिम्ब नहीं, न प्राकृतिक जगत् मिथ्या ही है। अतएव सर्वथा ब्रह्म से भिन्न भी नहीं। श्री निम्बार्क के सिद्धान्तानुसार तत्त्वमस्यादि महावाक्यों का यही तात्पर्य है। केवल परिणामी होने के कारण मिथ्या और विनष्वर आदि शब्दों से जगत् का निर्देष किया गया है। अल्पज्ञ, अल्पषक्ति-जीव और परिणामीषील होने के कारण जड़ तत्त्व ये दोनों तत्त्व रस एक कूटस्थ ब्रह्म से सर्वथा अभिन्न भी नहीं हो सकते। अतएव, भेद और अभेद दोनों ही स्वाभाविक हैं।

9. श्री निम्बार्काचार्य के वास्तविक भेदाभेद सिद्धान्त के अनुसार-1. उपास्य (ईष्वर), 2. उपासक (जीव), 3. कृपाफल 4. भक्तिरस 5. विरोधी तत्त्व (प्रकृति और प्रकृति के कार्यादि) ये पांचों वस्तु जानने के योग्य हैं। इन सबके ज्ञाता को ही पूर्णब्रह्मविद् कहा जाता है।श्री निम्बार्क सम्प्रदाय का गौरवषाली इतिहास, प्रेरणादायी एवं राष्ट्रजीवन के लिये उपयोगी है। श्री निम्बार्काचार्य पेनोरमा निष्चित रूप से आम समाज को राष्ट्र और भक्ति के प्रति आकर्षित करेगा।